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चौपई
पहर राति जब पिछली रही । तब महेसुरी ऐसी कही || मेरो लहुरा भाई हरी । नांउ सु तौ व्याहा है बरी ॥ ५२७ ॥ हम आए थे इहां बरात । भली यादि आई यह बात । बानारसी कहै रे मूढ़ । ऐसी बात केरी क्यौं गृढ़ ॥ ५२८ ॥
दोहरा
तब महेसुरी यौं कहै, भयौं भूली मोहि ।
अब मोकौं सुमिरन भई, तू निचित मन होहि ॥ ५२९ ॥
चौपाई
तब बनारसी हरषित भयौ । कछु इक सोच रह्यौ कछु गयौ ॥ कबहू चितकी चिंता भौ । कबहू बात झूठसी लगै ॥ ५३० ॥ यौं चिंतवत भयौ परभात । आइ पियादे लागे घात ॥
सूली दै मजूरके सीस । कोतवाल भेजी उनईस ॥ ५३१ ॥ ते सराइ डारी आनि । प्रगट पियादे कहैं बखानि । तुम उनीस प्रानी ठग लोग । ए उनीस सूली तुम जोग ॥ ५३२॥
दोहरा
घरी एक बीते बहुरि, कोतवाल दीवान ।
आए पुरजन साथ सब, लागे करन निदान ॥ ५३३ ॥
चौपई
तब बनारसी बोलै बानि । बरीमांहि निकसी पहचानि ॥ तब दीवान कहै स्याबास । यह तो बात कही तुम रास ॥ ५३४
१ अ कही । २ ब भई ।
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