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दोहरा दोइ रोजनामैं किए, रहे दुइके पास । चले नरोत्तम आगरै, रहे बनारसिदास ॥ ४९० रहे बनारसि जौनपुर, निरखि तात बेहाल । जेठ अंधेरी पंचमी, दिन बितीत निसिकाल ॥ ४९१ खरगसेन पहुचे सुरग, कहवति लोग विख्यात । कहां गए किस जोनिमैं, कहै केवली बात ॥ ४९२ कियौ सोक बानारसी, दियौ नैन भरि रोइ । हियौ कठिन.कीनौ सदा, जियौ न जगमैं कोइ ४९३
चौपई मास एक बीत्यौ जब और । तब फिरि करी बनजकी दौर ।। हुंडी लिखी, रजत से पंच । लिए, करन लागे पट संच ॥ ४९४ पट खरीदि कीनौं एकत्र । आयौ बहुरि साहुको पत्र । लिखा सिंघजी चीठीमाहिं । तुझ बिनु लेखा चूकै नाहिं ४९५ तातें तू भी आउ सिताब । मैं बुझौं सो देहि जुवाब ।। बानारसी सुनत बिरतंत । तजि कपरा उठि चले तुरंत ॥४९६ बांभन एक नाम सिवराम । सौंप्यौ ताहि बस्त्रका काम । मास असाढमांहि दिन भले । बानारसी आगरै चले॥४९७
दोहरा एक तुरंगम नौ नफर, लीने साथि बनाइ। नांउ घेसुआ गांउमैं, बसे प्रथम दिन आइ ॥ ४९८
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