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इस अन्तर ए दोऊ जने । आए निरभय घर आपनें । सब परिवार भयौ एकत्र । आयौ सबलसिंघको पत्र ।। ४७४ सबलसिंघ मौठिआ मसंद । नेमीदास साहुको नंद ॥ लिख्यौ लेख तिन अपने हाथ । दोऊ साझी आवहु साथ ॥४७५
दोहरा अब पूरबमैं जिनि रहौ, आवहु मेरे पास । यह चीठी साहू लिखी, पढ़ी बनारसिदास ।। ४७६ और नरोत्तमके पिता, लिख दीनौ बिरतत । सो कागद आयौ गुपत, उनि बांच्यौ एकंत ॥४७७ बांचि पत्र बानारसी, के कर दीनौ आनि । बांचहु ए चाचा लिखे, समाचार निज पानि ॥ ४७८ पढ़ने लगे बानारसी, लिखी आठ दस पाति । हेम खेम ताके तले, समाचार इस भांति ॥ ४७९ खरगसेन बानारसी, दोऊ दुष्ट विशेष । कपटरूप तुझको मिले, करि धूरतका भेष ॥ ४८० इनके मत जो चलहिगा, तौ मांगहिगा भीख । ताते तु हुसियार रहु, यहै हमारी सीख ॥ ४८१ समाचार बानारसी, बांचे सहज सुभाउ । तब सु नरोत्तम जोरि कर, पकरे दोऊ पाउ ॥ ४८२ कहै बनारसिदाससौं, तू बंधव तू तात ।
तू जानहि उसकी दसा, क्या मूरखकी बात ॥ ४८३ १ ऊपरके 'पढ़न लगे' से लेकर यहाँ तककी ये चार पंक्तियाँ अप्रतिमें ८१ के बाद लिखी हैं।
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