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दोहरा मारग बरत जथासकति, सब चौदसि उपवास । साखी की. पास जिन, राखी हरी पचास ॥४३६॥ दोइ विवाह सुरित (?) है, आगें करनी और । परदारा-संगति तजी, दुहू मित्र इक ठौर ॥ ४३७ ॥ सोलह सै इकहत्तरे, सुकल पच्छ बैसाख । बिरति धरी पूजा करी, मानहु पाए लाख ॥ ४३८ ॥
चौपई पूजा करि आए निज थान । भोजन कीना खाए पान ॥ करै कछु ब्यौपार बिसेख । खरगसेनको आयो लेख ॥ ४३९ ॥ चीठीमांहि बात बिपरीत । बांचन लागे दोऊ मीत ॥ बानारसीदासकी बाल । खैराबाद हुती पिउसाल ॥४४०॥ ताके पुत्र भयौ तीसरौ । पायौ सुख तिनि दुख बीसरौ । सुत जनमैं दिन पंद्रह हुए। माता बालक दोऊ मुए ॥४४१॥ प्रथम बहूकी भगिनी एक । सो तिन भेजी कियौ विवेक । नाऊं आनि नारिअर दियौ । सो हम भले मूहूरत लियौ ॥४४२ एक बार ए दोऊ कथा । संडासी लुहारकी जथा ।। छिनमंहि अगिनि छिनक जलपात। त्यों यह हरख-शोककी बात। यह चीठी बांची तब दुहू । जुगुल मित्र रोए करि उहूं। बहुतै रुदन बनारसि कियौ । चुप है रहे कठिन करि हियौ॥४४४
१ अ कीने। २ व नापित तिलक आनि कर कियो।
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