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इन्ह परमसुरकी लौ घरा । वह था चोरन्हका चौधरी ॥ तब बनारसी पढ़ा सिलोक । दी असीस उन दीनी धोक ॥ ४१८ कहै चौधरी आवहु पास । तुम्ह नारायण मैं तुम्ह दास ॥ आइ बसहु मेरी चौपारि । मोरे तुम्हरे बीच मुरारि ॥ ४१९ तब तीनौं नर आए तहां । दिया चौधरी थानक जहां ॥ तीनौं पुरुप भए भयभीत । हिरदैमांहि कंप मुख पीत ४२०
दोहरा मृत कादि डोरा बट्यौ, किए जनेऊ चारि । पहिरे तीनि तिहूं जनें, राख्यौ एक उबारि ॥४२१ माटी लीनी भूमिसौं, पानी लीनौं ताल । बिप्र भेष तीनौं बनें, टीका कीनों भाल ॥४२२॥
चौपई पहर दोइ लौं बैठे रहे । भयौ प्रात बादर पहपहे ॥ हय-आरूढ़ चौधरी-ईस । आयौ साथ और नर बीस ॥ ४२३ ॥ उनि कर जोरि नबायौ सीस । इन उठिकै दीनी आसीस ॥ कह चौधरी पंडितराइ । आवहु मारग देखें दिखाइ ॥४२४ ॥ पराधीन तीनौं उठि चले । मस्तक तिलक जनेऊ गले ॥ सिरपर तीनिहु लानी पोट । तीन कोस जंगलकी ओट ॥४२५॥ गयौ चौधरी कियौ निबाह । आई फतेपुरकी राह ॥ कहै चौधरी इस मगमांहि । जाहु हमर्हि आग्या हम जांहि ॥४२६॥
१अ तीन ।
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