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कछु घरके कछु परके दाम । रोक उधार चलायौ काम । जब सब सौंज भई तैयार । खरगसेन तल कियौ बिचार ॥२८५ सुत बनारसी लियौ बुलाय । तासौं बात कही समुझाय । लेहु साथ यहु सौंज समस्त । जाइ आगरे बेचहु बस्त ॥ २८६ अब गृहभार कंध तुम लेहु । सब कुटंबकौं रोटी देहु ।। यह कहि तिलक कियौ निज हाथ । सब सामग्री दीनी साथ ॥२८७
दोहरा
गाड़ी भार लदाइकै, रतन जतनसौं पास । राखे निज कच्छाविर्षे, चले बनारसिदास ॥२८८ मिली साथ गाड़ी बहुत, पांच कोस नित जांहि । क्रम क्रम पंथ उलंघकरि, गए इटाएमांहि ॥ २८९ नगर इटाएके निकट, करि गाडिन्हको घेर । उतरे लोग उजारमैं, हूई संध्या-बेर ।। २९० वन घमंडि आयौ बहुत, बरसन लाग्यौ मेह । भाजन लागे लोग सब, कहां पाइए गेह ॥ २९१ सौरि उठाई बनारसी, भए पयादे पाउ। आए बीचि सराइमैं, उतरे द्वै उंबराउँ॥ २९२ भई भीर बाजारमैं, खाली कोउ न हाट। कहूं ठौर नहिं पाइए, घर घर दिए कपाट ॥२९३ फिरत फिरत फावा भए, बैठन कहै न कोइ ।
तलै कीचसौं पग भरे, ऊपर बरसै तोइ ॥ २९४ १ व सौज । २ ध दियौ। ३ ब ओढ़ बानारसी । ४ व उमराव ।
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