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अंधकार रजनी समै, हिम रितु अगहन मास । नारि एक बैठन कह्यौ, पुरुष उठ्यौ लै बांस ॥ २९५ तिनि उठाइ दी. बहुरि, आए गोपुर पार । तहां औपरी तनकसी, बैठे चौकीदार ॥ २९६ आए तहां बनारसी, अरु श्रावक द्वै साथ । ते बूझै तुम कौन हौ, दुःखित दीन अनाथ ॥ २९७ तिनसौं कहै बनारसी, हम ब्यौपारी लोग। बिना ठौर व्याकुल भए, फिरै करम संजोग ॥ २९८
चौपई तब तिनक चित उपजी दया। कहैं इहां बैठौ करि मया ॥ हम सकार अपने घर जाहि । तुम निसि बसौ झौंपरी मांहि ॥२९९ औरौं सुनौ हमारी बात । सरियति खबरि भएं परभात | बिनु तहकीक जान नहि देहि । तब बकसीस देहु सो लेहि ॥३०० मानी बात बनारसि ताम । बैठे तहं पायौ विश्राम ॥ जल मंगाईकै धोए पाउ । भीजे बस्त्रन्ह दीनी बाउ ॥३०१ त्रिन बिछाइ सोए तिस ठौर । पुरुष एक जोरावर और ॥ आयौ कहै इहां तुम कौन । यह झौंपरी हमारौ भौन ॥ ३०२ सैन करौं मैं खाट बिछाइ । तुम किस ठाहर उतरे आइ॥ कै तौ तुम अब ही उठि जाहु । कै तौ मेरी चाबुक खाहु ॥३०३ तब बनारसी है हलबले । बरसत मेहु बहुरि उठि चले ॥ उनि दयाल होइ पकरी बांह । फिरि बैठाए छायामांह ॥३०४ ११ सब नर, ई सकाल । २ व सो।
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