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दोहरा इहि बिंधि जैनधरम कथा, कहै सुनै दिन रात । होनहार कोउ न लखै, अलख जीवकी जात ॥ २७६ तब अपजसी बनारसी, अब जस भयौ विख्यात । आयौ संबत चौसठा, कहौं तहांकी बात ॥ २७७ खरगसेन श्रीमालक, हुती सुता द्वै ठौर । एक बियाही जौनपुर, दुतिय कुमारी और ॥ २७८ सोऊ ब्याही चौसठे, संबत फागुन मास । गई पाडलीपुरविर्षे, करि चिंतादुखनास ॥ २७९ बानारसिके दूसरौ, भयौ और सुत कीर । दिवस कैकुमैं उड़ि गयौ, तजि पिंजरा सरीर ॥ २८०
चौपई कबहुं दुख कबहुं सुख सांति । तीनि बरस बीते इस भांति ॥ लच्छन भले पुत्रके लखे । खरगसेन मनमांहि हरखे ॥ २८१ संबत सोलह से सतसठा । घरको माल कियौ एकठा ॥ खुला जवाहर और जड़ाउ । कागदमांहि लिख्यौ सब भाउ ॥२८२ द्वै पुहची द्वै मुद्रा बनी। चौबिस मानिक चौतिस मनी ।। नौ नीले पन्ने दस-दून । चारि गांठि चूंनी परचून ॥ २८३ एती बस्तु जवाहररूप । घृत मन बीस तेल द्वै कूप । लिए जौनपुर होई दुकूल । मुद्रा द्वै सत लागी मृल ॥२८४
१ई पाटलीपुर। २ब पोहची। ३ ब चौतिस मानिक चौबिस मनी। ४ व हौहि ।
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