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हाइ हाइ करि बोले मीत । नदी अथाह महाभयभीत ।। तामैं फैलि गए सब पत्र । फिरि कहु कौन करै एकत्र ।। २६८॥ घरी दूक पछितान मित्र । कहैं कर्मकी चाल विचित्र ।। यह कहिके सब न्यारे भए । वनारसी आपुन घर गए ॥ २६९ खरगसेन मुनि यहु बिरतंत । हुए मनमैं हरषितवंत ॥ सुतके मन ऐसी मति जगै। घरकी नाउँ रही-सी लगे ।। २७०
दोहरा तिस दिनसौं बानारसी, करें धरमकी चाह । तजी आसिखी फासिखी, पकरी कुलकी राह ।। २७१ ॥ कहें दोष कोउ न तजै, तजै अवस्था पाइ। जैसे बालककी दसा, तस्न भए मिटि जाइ ॥ २७२ ॥ उदै होत सुभ करमके, भई असुभकी हानि । ताते तुरित अनारसी, गही धरमकी बानि ॥ २७३ ॥
चौपई नित उठि प्रात जाइ जिनभौन । दरसनु बिनु न करें दंतौन । चौदह नेम बिरति उच्चरें । सामाइक पडिकौना करें ॥२७४ हरी जाति राखी एखांन । जावजीर बैंगन-पचखान । पूजाबिधि साध दिन आठ । प? बीनती पद मुख-पाठ ।। २७५
१ अ ड घड़ी। २अ बनारसी अपने । ३ ब नीउ। ४ अजसी । ५ ड पूजापाठ पढ़े मुखपाठ ।
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