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अकबरको नंदन बड़ौ, साहिब साहि सलेम । नगर आगरेमैं तखत, बैठौ अकबर जेम ।।२५८ नांउ धरायौ नृरदीं, जहांगीर सुलतान ।। फिरी दुहाई मुलकमैं, बरती जहं तहं आन ॥ २५९ ॥ इहि बिधि चीठीमैं लिखी, आई घर घर बार । फिरी दुहाई जौनपुर, भयौ सु जयजयकार ।। २६० ॥
चौपई खरगसेनके घर आनंद । मंगल भयौ गयो दुख-दंद ।। बानारसी कियौ असनान । कीजै उत्सव दीजै दान ।। २६१ ।। एक दिवस बानारसिदास । एकाकी ऊपर आवास ॥ बैठयौ मनमैं चिंतै एम । मैं सिव-पूजा कीनी केम ।। २६२ ॥ जब मैं गिरचौ परयौ मुरछाइ । तब सिव किट्ट न करी सहाइ । यहु बिचारि सिव-पूजा तजी । लखी प्रगट सेवामें कजी ॥२६३ ॥ तिस दिनसौं पूजा न सुहाइ । सिव-संखोली धरी उठाइ ॥ एक दिवस मित्रन्हक साथ । नौकृत पोथी लीनी हाथ ।। २६४ ॥ नदी गोमतीके बिच आइ । पुलके ऊपरि बैठ जाइ ।। बांचे सब पोथीके बोल । तब मनमें यह उठी कलोल || २६५ ।। एक झूठ जो बोले कोइ । नरक जाइ दुख देखै सोई॥ में तो कलपित बचन अनेक । कहे झुठ सब साचु न एक ॥२६॥ कैसे बने हमारी बात । भई बुद्धि यह आकसमात ।। यह कहि देखन लाग्यो नदी । पोथी डार दई ज्यों दी ।। २६७।।
१ अ स मुरझाय । २ ब इ तट ।
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