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दिन दस रहे बनारसी, नगर बनारसमांहि । पूजा कारन घोहरे, नित प्रभात उठि जांहि ॥२३४ एहि विधि पूजा पासकी, कीनी भगतिसमेत । फिरि आए घर आपन, लिए संखोली सेत ॥ २३५ पूजा संख महेसकी, करकै तौ किछु खांहि । देस विदेस इहां उहां, कबहुं भूली नांहि ! २३६
सोरठा संखरूप सिवदेव, महा संख बानारसी। दोऊ मिले अवेव, साहिव सेवक एकसे ॥ २३७
दोहा
इस ही बीचि उसे परे, खरगसेनके भौन । भयौ एक अलपायु सुत, ताहि बखानै कौन ॥२३८
__ चौपई संबत सोलह से इकसठे । आए लोग संघसौं नठे ॥ केई उबरे केई मुः । केई महा जहमती हुए ॥ ३३९ खरगसेन पटनेंमौं आइ । जहमति परे महा दुख पाइ ॥ उपजी विथा उदरम राग । फिरि उपसमी आउल-जोग ॥ २४८ संघ साथ आए निज वाम । नंद जौनपुर कियौ मुकाम । खरगसेन दुख पायौ वाट । घरम आइ परे फिरि खाट ॥ २४१
१अ कीधी । २ ब अमेव । ३ अ उदरके । ४ ब आरबल, ड आयुबल ।।
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