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जल - भोजनकी लहि सुध, हि आनि मुखमांहि । ओखद लावहिं अंगे, नाक मंदि उठि जांहि ॥ १८८ ।
चौपाई
इस अवसर नर नापित कोइ । ओखद - पुरी खबावै सोइ ॥ चने अने भोजन देइ । पैसा टका किछु नहि लेइ ॥ १८९ ॥
चारि मास बीते इस भांति । तब किछु बिधा भई उपसांति ॥ मास दोइ औरौ चलि गए। तब बनारसी नीके भए । १९०
दोहरा
न्हा धोइ ठाढ़े भए, दै नाऊकौं दान ।
हाथ जोड़ि बिनती करी, तू मुझ मित्र समान ॥ १९१ नापित भयौ प्रसंन अति, गयौ आपने धाम । दिन दस खैराबाद मैं, कियो और बिसराम ॥ १९२ फिरि आए डोली चढ़े, नगर जौनपुरमांहि । सासु ससुर अपनी सुता, गौंने भेजी नांहि ॥ १९३ आइ पिताके पद गहे, मां रोई उर ठोकि । जैसे चिरी कुजिकी, त्यौं सुत-दसा बिलोकि ॥ १९४ खरगसेन लज्जित भए, कुबचन कहे अनेक | रोए बहुत बनारसी, रहे चकित छिन एक ॥। १९५ दिन दस बीस परे दुखी, बहुरि गए पोसाल । कै पढ़ना कै आसिखी, पकरी पहिली चाल ॥ १९६
१ ब देहमैं |
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