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________________ २२ जल - भोजनकी लहि सुध, हि आनि मुखमांहि । ओखद लावहिं अंगे, नाक मंदि उठि जांहि ॥ १८८ । चौपाई इस अवसर नर नापित कोइ । ओखद - पुरी खबावै सोइ ॥ चने अने भोजन देइ । पैसा टका किछु नहि लेइ ॥ १८९ ॥ चारि मास बीते इस भांति । तब किछु बिधा भई उपसांति ॥ मास दोइ औरौ चलि गए। तब बनारसी नीके भए । १९० दोहरा न्हा धोइ ठाढ़े भए, दै नाऊकौं दान । हाथ जोड़ि बिनती करी, तू मुझ मित्र समान ॥ १९१ नापित भयौ प्रसंन अति, गयौ आपने धाम । दिन दस खैराबाद मैं, कियो और बिसराम ॥ १९२ फिरि आए डोली चढ़े, नगर जौनपुरमांहि । सासु ससुर अपनी सुता, गौंने भेजी नांहि ॥ १९३ आइ पिताके पद गहे, मां रोई उर ठोकि । जैसे चिरी कुजिकी, त्यौं सुत-दसा बिलोकि ॥ १९४ खरगसेन लज्जित भए, कुबचन कहे अनेक | रोए बहुत बनारसी, रहे चकित छिन एक ॥। १९५ दिन दस बीस परे दुखी, बहुरि गए पोसाल । कै पढ़ना कै आसिखी, पकरी पहिली चाल ॥ १९६ १ ब देहमैं | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001851
Book TitleArddha Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarasidas
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1987
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size13 MB
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