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दोहरा कै पढ़ना कै आसिखी, मगन दुहु रसमांहि ॥ खान-पानकी सुध नहीं, रोजगार किछु नांहि ॥ १८० ॥
चौपई ऐसी दसा बरस द्वै रही। मात पिताकी सीख न गही। करि आसिर्ख ठ सब पठे । संबत सोलह से उनसठे ।। १८१ ॥
दोहरा भए पंचदस बरसके, तिस ऊपर दस मास । चले पाउजा करनकौं, कबि बनारसीदास ॥ १८२ ॥ चढि डोली सेवक लिए, भूषन बसन बनाइ । खैराबाद नगरविषै, सुखसौं पहुचे आइ ॥ १८३ ।।
चौपई मास एक जब भयौ बितीत । पौष मास सितै पख रितु सीत ।। पूरब करम उदै संजोग । आकसमात बातको रोग ॥ १८४ ।।
दोहरा भयौ बनारसिदास-तनु, कुष्ठरूप सरबंग । हाड़ हाड़ उपजी बिथा, केस रोम भुव-भंग ॥ १८५ ॥ बिस्फोटक अगनित भए, हस्त चरन चौरंग । कोऊ नर साला ससुर, भोजन करै न संग ॥ १८६ ॥ ऐसी असुभ दसा भई, निकट न आवै कोइ । सासू और बिवाहिता, करहिं सेव तिय दोइ.॥१८७ ॥ १ड पोष। २ अ रितु सित पख सीत। ३ अ.बात संयोग।
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