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चौपाई बसै प्रयाग त्रिवेनी पास जाकौ नांउ इलाहाबास || तहां दानि वसुधा-पुरहूत | अकबर पातिसाहको प्रत ॥ १३३ ॥ खरगसेन तहां नौ गौंन । रोजगार कारन ताजे भान ।। बनारसी बालक घरि रह्यौ । कौड़ी बेच बनिजं तिन गयी || १३४|| एक टका टक कमाइ । काहूकी ना धेरै तमाइ || जोरे नफा एकठा करे । है दादीके आगे धरै ।। १३५ दोहरा
दादी बांटे सीरनी, लाडू नुकती नित्त ।
प्रथम कमाई पुत्रकी, सती अऊत निमित्त ॥ १३६ चौपई दादी मानै सती अऊत । जानै तिन दीनौ यह पृत ! दख सुपिन करें जब सैन ! जागे कहै पितरके चैन ॥ १३७ तासु बिचार करै दिन राति । ऐसी मृढ़ जीवकी जाति ॥ कहत न बने हैं का कोइ । जैसी मति तैसी गति होइ ॥ १३८ दोहरा मास तीनि औरौं गए, बीते तेरह मास !
चीठी आई सेनकी, करहु फतेपुर वास ।। १३९ ॥ डोली है भाई करी, कीनें च्यारि मजूर |
सहित कुटुंब बनारसी, आए फत्तेपुर ॥ १४० ॥ चौपर फत्तेपुरमें आए तहाँ । ओसवालके घर हैं जहाँ ! | बासु साह अध्यातम-जान । बसै बहुत तिन्हकी संतान ॥ १४१ ॥
१ ड ई बनज । २ अ ड निकुती । ३ व इक !
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