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भरयौ अनसौं कोठी एक । भख्य पदारथ और अनेक ॥ सकल बस्तु पूरन करि गेह। तिन दीनौं करि बहुत सनेह ॥१२४॥ खरगसेन हठ कीनौ महा । चरन पकरि तिन कीनी हहा ॥ अति आग्रह करि दीनौ सर्व । बिनय बहुत कीनी तजि गर्व ॥१२५॥
दोहरा घन बरसै पावस समै, जिन दीनौ निज भौन । ताकी महिमाकी कथा, मुखसौं बरनै कौन ॥ १२६ ॥
चौपई खरगसेन तहां सुखसौं रहै । दसा बिचारि कबीसुर कहै ।' वह दुख दियौ नवाब किलीच । यह सुख साहिजादपुरबीच ॥१२७ एक दिष्टि बहु अंतर होइ । एक दिष्टि सुख-दुख सम दोइ ॥ जो दुख देखै सो सुख लहै । सुख भुंजै सोई दुख सहै ॥ १२८॥
दोहरा सुखमैं मानै मैं सुखी, दुखमैं दुखमय होइ । मृढ़ पुरुषकी दिष्टिमैं, दीसै सुख दुख दोइ ॥१२९॥ ग्यानी संपति विपतिमैं, रहै एकसी भांति । ज्यौं रबि ऊगत आथवत, तजै न राती कांति ॥ १३०॥ करमचंद माहुर बनिक , खरगसेन श्रीमाल । भए मित्र दोऊ पुरुष, हैं स्यनि दिन नालै ।। १३१॥ इहि बिधि कानौ मास दस, साहिजादपुर बास ।
फिर उठि चले प्रयागपुर, बस त्रिबेणी पास ॥१३२ ॥ १ब ठौ। २ अ अवर । ३ अ लाल।
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