________________
संपति सुंदरदासकी, जु कछु लिखी मिलि पंच । सो सब दीनी बहिनिकों, सेन न राखी रंच ।। ७२ ॥ तेतीमै संवत समै, गए जौनपुर गाम । एक तुरंगम एक रथ, बहु पाइक बहु दाम ॥ ७३ ॥ दिन दस बीते जौनपुर, नगरमांहि करि हाट ।
साझी करि बेठे तुरित, कियो बनजको ठाट ॥ ७४ ॥ रामदास बनिआ धनपती । जाति अगरबाला सिवमती ॥ सो साझी कीनों हित माने । प्रीति रीति परतीति मिलान ॥ ७५ ॥ करहिं सराफी दोऊ गुनी । बनजहिं मोती मानिक चुनी ॥ सुखसौं काल भली विधि गमै । सोलहसै पैंतीस समै ॥ ७६ ॥ खरगसेन घर सुत अवतस्यौ । खरच्यौ दरव हरस मन धरयौ ।। दिन दसम पहुच्यौ परलोक । कीना प्रथम पुत्रको सोक ॥ ७७ ॥ सैंतीसै संवतकी बात । रुहतग गए सतीकी जात ॥ चोरन्ह लुटि लियौ पथमांहि । सर्वस गयौ रह्यौ कछु नांहि ॥ ७८ रहे वस्त्र अरु दंपति-देह । ज्यौं त्यौं करि आएं निज गेह ॥ गए हुते मांगनकौं प्रत । यह फल दीनौं सती अऊत ॥ ७९ तऊ न समुझे मिथ्या बात । फिरि मानी उनहीकी जात ॥ प्रगट रूप देखै सब फोक । तऊ न समुझे मूरख लोक ॥ ८० घर आए फिर बैठे हाट । मदनसिंघ चित भए उचाट । माया तजी भई सुख सांति । तीन बरस बीते इस भांति ॥ ८१ संबत सोलहसै इकताल । मदनसिंघने कीनों काल ॥ धर्म कथा फली सब ठौर । बरस दोइ जव बीते और ॥ ८२
१ व जान । २ अ सोग । ३ अ लोग । ४ अ कीधो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org