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कीनों दुखी दरिद्री भेख । लीनों ऊबट पंथ अदेख ॥ नदी गांउ बन परबत घृमि । आए नगर जौनपुर-भूमि ॥ ६४॥ रजनी समै रोइ निज आइ । गुरुजन-चरननमैं सिर नाइ।। किछु अंतर-धनु हुतौ जु साथ । सो दीनों माताके हाथ ।। ६५ ।। एहि बिधि बरा च्यारि चलि गए । बरस अठारहके जब भए । किया गवन तब पच्छिम दिसां। संवत सोलह से छब्बिसौ।। ६६ ।। आए नगर आगरेमाहि । सुंदरदास पीतिआ पांहि । खरगसेनसौं राखै प्रेम । करै सराफी बेचे हेम ।। ६७ ॥ खरगसेन भी थैली करी । दुहू मिलाइ दामसौं भरी। दोऊ सीर करहिं बेपार । कला निपुन धनवंत उदार ॥ ६८ ।। उभय परस्पर प्रीति गहंत । पिता पुत्र सब लोग कहंत । बरस च्यारि ऐसी बिधि भए । तब भेरठिपुर ब्याहन गए ।। ६९ ॥
छप्पै . सूरदास श्रीमाल ढोर मेरठी कहावै । ताकी सुता बियाहि, सेन अर्गलपुर आवै । आइ हाट बैठे कमाइ, कीनी निज संपति ।
चाचीसौं नहिं बनी, लियौ न्यारो घर दंपति ॥ इस बीचि बरस द्वै तीनिमें, सुंदरदास कलत्रजुत । मरि गए त्यागि धन धाम सब, सुता एक, नहिं कोउ सुत ।। ७० ॥
दोहरा सुता कुमारी जो हुती, सो परनाई सेनि ।
दान मान बहुबिधि दियौ, दीनी कंचन रेंनि ॥ ७१ ॥ १ ड दारिदी । २-३ अ दीस, छब्बीस । ४ ब करंत । ५ अ सुख ।
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