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दोहरा जिन पहिरी जिन-जनमपुर-नाम-मुद्रिका-छाप । सो बनारसी निज कथा, कहै आपसौं आप ॥३॥
चौपाई जैनधर्म श्रीमाल सुबंस । बानारसी नाम नरहंस । तिन मनमांहि बिचारी बात । कहीं आपनी कथा विख्यात ॥४॥
जैसी सुनी बिलोकी नैन । तैसी कछु कहाँ मुख-बैन ॥ कहौं अतीत-दोष-गुणवाद । बरतमानताई मरजाद ॥५॥ भावी दसा होइगी जथा। ग्यानी जाने तिसकी कथा ।। तातें भई-बात मन आनि । थूलरूप कछु कहाँ बखानि ॥६॥ मध्यदेसकी बोली बोलि । गर्मित बात कहौं हिय खोलि || भास्वू पूरब-दसा-चरित्र । सुनहु कान धरि मेरे मित्र ॥ ७॥
दोहरा याही भरत सुखेतमैं, मध्यदेस सुभ ठांउ । बसै नगर रोहतगपुर, निकट बिहोली-गांउ ।। ८॥ गांउ बिहोलीमैं बसै, राजबंस रजपूत । ते गुरु-मुख जैनी भए, त्यागि करम अदभूत ॥ ९॥ पहिरी माला मंत्रकी, पायौ कुल श्रीमाल । थाप्यौ गोत बिहोलिआ, बीहोली-रखपाल ॥१०॥ भई बहुत बंसावली, कहाँ कहाँ लौं सोइ । प्रगटे पुर रोहतगमैं, गांगा गोसल दोइ ।।११।। तिनके कुल बस्ता भयो, जाकौ जस परगास ।
बस्तपालके जेठमल, जेके जिनदास ॥ १२॥ १ ड रुहतग्गपुर । २ ड गुरमुख । ३ अ अधभूत । ४ ब स ई गोमल गांगो।
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