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दो कविताएँ प्रकाशित की हैं । 'मांझा' में १३ पद्य हैं। भाषा बड़ी ही ऊटपटांग और पंजावीमिश्रित है। इसकी चौथी पंक्तिकी लम्बाई देखकर सन्देह होता है कि इसमें ' दास बनारसी ' जबर्दस्ती ऊपरसे डाला गया है । पंक्ति यह है -- कहत दास बनारसी अलप सुख कारने तैं नरभवबाजी हारी ।' जब कि अन्य पंक्तियाँ इतनी लम्बी नही है । छठी पंक्ति है - " मानुषजनम अमोलक हीरा, 'हा गँवाय खासा । ' इसी वजनकी अन्य भी पंक्तियों हैं । 'पद' में कहा है- ' जगत् मैं ऐसी रीति चली । चलतेस्यों गाड़ी कहै, सो ऐसी बात भली ।' आदि । यह अशुद्ध छपा है और किसी सन्तका ही मालूम होता है। कबीर के ' चलतीसौं गाड़ी कहैं, नगद मालकौं खोया ' का अनुकरण जान पड़ता है ।
अप्राप्त रचनाएँ
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डा० माताप्रसादजी गुप्तने अर्द्ध कथाकी भूमिकामें कुछ रचनाओंके प्राप्त न होनेका संकेत किया है। वे लिखते हैं कि "नाममाला, बारह व्रतके कवित्त, अतीत व्यवहार कथन तथा आँखें दोइ बिधि ' के पाठ प्राप्त नहीं हैं । " ( इनके उल्लेख भ-कथानक में हैं । ) परन्तु इसमें उन्हें कुछ भ्रम हुआ है। इनमें से 4 नाममाला' तो प्राप्त है और प्रकाशित हो चुकी है । बारह के कवित्त ' का जो उल्लेख है, वह इस प्रकार है
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नगर आगरे पहुंचे आइ, सब निज निज घर बैठे जाइ । बनारसी गयौ पौसाल, सुनी जती सावककी चाल || ५८६ बारह व्रत किए कवित्त, अंगीकार किए धरि चित्त । चौदह नेम संभालै नित्त, लागे दोष करै प्राछित्त ॥ ५८७
अर्थात् जात्रासे लौटकर सब लोग आगरे आ गये। बनारसीदास पौसाल या उपासरे में गये और वहाँ यतियों और श्रावकोंका आचार धर्म सुना, उसमें बारह व्रतोंके ( किसी के) बनाये हुए वित्त सुनें और उन्हें चित्त लगाकर अंगीकार किया । फिर चौदह नियमोंको पालने लगे । यदि उनमें कहीं कोई दोष लगता था तो उसका प्रायश्चित करते थे । अर्थात् हमारी समझमें उन्होंने बारह व्रतों के कोई कवित्त स्वयं नहीं बनाये, किसीके बनाये हुए सुनें और उन व्रतोंको धारण किया। आगेकी 'चौदह नेम' आदि पंक्तिका सम्बन्ध भी इससे ठीक बैठ जाता है ।
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