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सिंगी रिषिसे बनमहिं मारे, मोतें कौन कौन नहि हारे। मायामोह तजै घरबास, भो” भागि जांहि बनवास ।। कंद-मूल जे भछन कराही, तिनिहूकों मैं छोडौं नाहीं ।।
इक जागत इक सोबत मारूं, जोगी जती तपी संघारूं ॥ महादेव और मोहिनी, इन्द्र और गुरुपत्नी अहल्या. ब्रह्मा और उनकी कन्या, शृंगी ऋषि और वन आदिकी कथाएँ जैन ग्रन्थों में इस रूपमें कहीं नहीं आती, कन्दमूल भक्षण करनेवाले जोगी जती तापस तो निश्चयसे यह बतलाते हैं कि इनका कर्ता जैन नहीं है । लोभ कहता है
देवी देवा लोभ कराहीं, बलिके बाँधे भूतल जाहीं। । भुए पितर माँगें जु सराधा, माँगहि पिंड भूत आराधा ॥ ६६ सती अऊत जु पूजा मांगें, जीवत क्यों छूटै मो आर्गे ॥ जोगी रिद्धिकाज सिध साधे, संन्यासी सब ही आराधैं ॥ ६७ पंडित चारौं बेद बखान, जगु समझाव आपु न जाने ।
सत्य ब्रह्म झूठी सब माया, बाहुड़ि मन पूजामहि आया ॥६९ उक्त पंक्तियोंपर भी विचार करना चाहिए ।
कविवर बनारसीदासजीकी रचनाओंके साथ इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती । न तो इसकी भाषा ही ठीक है और न छन्द ही। इसे उनकी प्रारम्भिक रचना मानना भी उनके साथ अन्याय करना है ।
२ नये पद-बनारसीविलासके प्रथम संस्करणमें मैंने तीन नये पदसंग्रह करके प्रकाशित किये थे और जयपुरके नये संस्करणमें उनके सम्पादकोंने दो और नये पद दिये हैं। परन्तु विचार करनेसे उत्त गाँनों ही पद किसी दूसरे 'बनारसी' के मालूम होते हैं और आश्चर्य नहीं जो वे मोहविवेकजुद्धके कर्ताके ही हों।
३ मांझा और पद-वीरवाणीके वर्ष ८, अंक १० में पं. कस्तूरचन्दजी कासलीवालने दीवान बधीचन्दजीके शास्त्रभण्डारके गुटकोंमें मिली हुई इस नामकी
१- ब्रह्म सत्यं जगन्मिध्या।
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