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इन तीन में से पहले सुकवि मल्ल हैं, जिनका 'प्रबोधचन्द्रोदय नाटक ' जयपुरके किसी दिगम्बर भंडार में है; जिसे देखकर श्री अगरचन्दजी नाहटाने उसका परिचय भेजनेकी कृपा की है। प्रतिमें प्रबोधचन्द्रोदय के साथ उसका दूसरा नाम 'मोह-विवेक ' भी दिया है । मल्ल कविका प्रसिद्ध नाम मथुरादास और पिता प्रदत्त नाम देवीदास था । वे अन्तर्वेद के निवासी थे | ग्रन्थमें सब मिलाकर ४६७ चौपाइयाँ हैं । यह कृष्ण मिश्र यतिके संस्कृत चन्द्रोदयके आधारसे लिखा गया है । २५ पत्रोंका ग्रन्थ है । इसका रचनाकाल नाहटाजी संवत् १६०३ बतलाते हैं ।
संस्कृत प्रबोधेचन्द्रोदय नाटककी रचना बुन्देलखंड के चन्देलराजा कीर्तिवर्मा के समय हुई थी और कहा जाता है कि वि० सं० १९९२ में यह उक्त राजाके समक्ष खेला भी गया था । इसके तीसरे अंक में क्षपणक (जैनमुनि ) नामक पात्रको बहुत ही निन्द्य और घृणित रूपमें चित्रित किया है। वह देखनेमें राक्षस जैसा है और श्रावकोंको उपदेश देता है कि तुम दूरसे चरणवन्दना करो और यदि वह तुम्हारी स्त्रियों के साथ अतिप्रसंग करे, तो तुम्हें ईर्ष्या न करनी चाहिए । फिर एक कापालिनी उससे चिपट जाती है जिसके आलिंगनको वह मोक्षसुख समझता है और फिर महा भैरवके धर्ममें दीक्षित होकर कापालिनीकी जूठी शराब पीकर नाचता है
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• मथुरादास नाम बिस्तारयौ, देवीदास पिताको धारयौ । अन्तर्वेद देसमै रहैं, तीजे नाम मल्ह कवि कहै ॥ ८
२ - कृष्णभट्ट करता है जहाँ, गंगासागर भेटे तहाँ ।
३ - सोरइसे संवत जब लागा, तामहिं बरस एक अर्ध - (१) भागा अर्थात् कातिक कृष्णपक्ष द्वादसी ना दिन कथा
मनमै बसी ||
इसमें 'बदरी' पाठ कुछ समझ में नहीं आया, और तब यह संवत् १६०३ कैसे हो गया ?
४ - निर्णयसागर प्रेस, बम्बईद्वारा प्रकाशित !
५ - वादिचन्द्रसूरिने (जैन ) ने शायद इन्हीं आक्षेपोंका बदला चुकानेके लिए 'ज्ञानसूर्योदय नाटक ' संस्कृत में लिखा है । मैंने इसका हिन्दी अनुवाद करके सन् १९१० के लगभग जैनग्रन्थरत्नाकर द्वारा प्रकाशित किया था ।
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