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इससे ऐसा मालूम होता है कि यह कोई मुक्तक काव्य होगा और उसमें कल्पनाके सहारे खड़े किये गए किसी प्रेमी युगल (आशिक - माशूक ) की नवरसयुक्त कथा लिखी होगी, जो एक हजार दोहा - चौपाइयों में पूरी हुई थी । कल्पितको ही वे झूठ कहते जान पड़ते हैं । जिस चीजको उन्होंने रहने ही नहीं दिया, कहीं जिसका अस्तित्व ही नहीं है, उसके विषयमें अधिक और क्या बतलाया जा सकता है ?
बनारसी 'के नामकी कई अन्य रचनाएँ
इधर बनारसीके नामवाली कई रचनाएँ प्रकाशमें आई हैं जिनके विषयमें कहा जाता है कि वे इन्हीं बनारसीदासकी रची हुई हैं । यहाँ उनकी जाँच कर लेना आवश्यक मालूम होता है ।
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१ - मोहविवेकजुद्ध - यह दोहा और चौपाई छन्दोंमें हैं और सब मिलाकर इसमें ११० पद्य हैं । पहले इसके प्रारंभके तीन दोहोंपर विचार कीजिए
बपुमें बरणि बनारसी, विवेक मोहकी सैन | ताहि सुनत स्रोता सबै, मनमैं मानहिं चैन ॥ १ पूरब भए सुकवि मल्ल, लालदास गोपाल । मोह-विवेक किए सु तिन्ह, बाणी बन्चन रसाल ॥ २ तिनि तीनहु ग्रंथनि, महा सुलप सुलप सधि देख | सारभूत संछेप अत्र, साधि लेत हौं सेष ॥ ३
अर्थात् मुझसे पहले सुकवि मल्ल, लालदास और गोपालने मोहविवेक ( जुद्ध ) बनाये हैं, उनको देखकर सारभूत संक्षेपमें इसे रचता हूँ ।
१ - पं० कन्नूरचन्दजी काशलीवालने लिखा है कि जयपुरके बड़े मन्दिरके शास्त्रमंडार में इसकी पाँच प्रतियाँ हैं, तीन गुटकोंमें और दो स्वतंत्र | वीरवाणीके वर्ष ६ के अंक २३-२४ में श्रीअगरचन्दबी नाहटाने इसे पूरा प्रकाशित कर दिया है । वीर-पुस्तक-भंडार, मनिहारोंका रास्ता, जयपुरने इसे पुस्तकाकार भी निकाला है । मेरे पास भी इसकी एक अधूरी कापी ( ७७ पद्य ) है, जो स्व० गुरूजी ( पन्नालालजी बाकलीवाल ) ने जयपुरसे ही नकल करके भेजी थी ।
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