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द्रव्यार्थिक निमित्त उपादान गुनभेदकल्पना । पर्यायार्थिक निमित्त उपादान परनोगकल्पना । "
४५ - निमित्त उपादान के दोहे - निमित्त और उपादानका पुराना विवाद है । सात दोहोंमें दोनोंको स्पष्ट किया गया है
गुरु उपदेश निमित्त बन, उपादान बलहीन | ज्यौं नर दूजे पांव बिन, चलवेकों आधीन ॥ १ जाने था एक ही, उपादानसौं काज । सहाई पौन बिन, पानी मांहि जहाज ॥ २
४६ अध्यात्मपदपंक्ति-- इसमें भैरव, रामकली, बिलावल, आसावरी, घनाश्री, सारंग, गौरी, काफी आदि रागोंमें २१ पद या भजन हैं जो बहुत मार्मिक और सुन्दर हैं। नमूनेका एक पद देखिए
हम बैठे अपनी मौनसौं ।
दिन दसके महमान जगतजन, बोलि बिगारें कौनसौं । हम बै० १ गए बिलाय भरमके बादर, परमारथपथ पौनसौं ।
अब अंतरगति भई हमारी, परचै राधारौनसों ॥ हम० २
प्रगटी सुधापानकी महिमा, मन नहिं लागै बौनसौं ।
छिन न सुहाई और रस फीके, रुचि साहिब के लौनसौं ॥ हम० ३ रहे अघाइ पाइ सुखसंपति को निकसै निज भौनस ।
सहज भाव सदगुरुकी संगति, सुरझे आवागौनसौं । हम० ॥ ४
इसके आगे पदका नंबर ५ देकर ८ दोहे और हैं, जो जिनमुद्रा या जिनप्रतिमा के ही सम्बन्धके हैं। जान पड़ता है, पूर्वोक्त दो दोहे और ये आठ दोहे एक ही पदके हैं। दो दोहोंके बाद " इहि विधि देव अदेवकी मुद्रा लख लीजे । " यह टेक दी है और सबको ' रागविलावल ' बतलाया है ।
दसवें पदको ' राग बरवा' लिखा है । यह बनारसीदासजीने अपने मित्र थानमल्ल और नरोत्तम के लिए रचा है
१ - बनारसीविलासकी इस समय कोई हस्तलिखित पुरानी प्रति नहीं मिली । ये नमूने छपी हुई प्रतिपरसे दिये गये हैं ।
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