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लगै
भूख जुरके गए, रुचिसौं लेइ अहार | असुभ गए सुभके जगे, जानै धर्मविचार || ३ जैसें पवन झकोरतें, जल में उठै तरंग | त्यौं मनसा चंचल भई, परिग्रह के परसंग ॥ ४
जहाँ पवन नहिं संचरै, तहां न जलकल्लोल | त्यौं सत्र परिगह त्यागौं, मन-सर होइ अडोल ॥ ५
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१५ शिवपचीसी – इसमें जीवको शिवस्वरूप बतलाया है और शिव यP महादेवको निश्चयनयसे शंकर, शंभु त्रिपुरारि, मृत्युंजय आदि नामोंको सार्थक कहा है -
शिवसरूप भगवान अवाची, शिवमहिमा अनुभवमति सांची । शिवमहिमा जाके घर भासी, सो शिवरूप हुआ अविनासी ॥ ३ जीव और शिव और न होई, सोई जीव वस्तु शिव सोई । जीव नाम कहिए व्योहारी, शिवसरूप निहचे गुणधारी ॥ ४ १६ भवसिन्धु- चतुर्दशी - १४ दोहोंमें संसार - समुद्रको पारकर शिवद्वीप में पहुँचनेपर जोर दिया है
जैसे काहू पुरुषकौं, पार पहुंचबे काज । मारगमांहि समुद्र तहां, कारणरूप जहाज ॥ १ तैसें सम्यक को, और न कछू इलाज | भवसमुद्र के तरनकौं, मन जहाजस काज ॥ २ मन जहाज घटमैं प्रगट, भवसमुद्र घटमांहि । मूरख मरम न जानहीं, बाहर खोजन जांहि ॥ ३
१७ अध्यातम फाग - इसमें १८ दोहे हैं और उनके पहले तीसरे चरण के अन्तमें ' हो ' और चौथे चरण के बाद ' भला अध्यातम बिन क्यों पाइए' यह टेक डाली है -
विषम विरस पूरौ भयौ हो, आयौ सहज वसंत । प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मनमधुकर मयमंत || भला अध्यातम बिन क्यों पाइए । २
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