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भ्रम संसैकी-भूलसौं, लहै न सहन सुकीय ।
करमरोग समुझे नहीं, यह संसारी जीय ॥ २१ १२ ध्यान-बत्तीसी- इसमें पहले रूपस्थ, पदस्थ, पिंडस्थ और रूपातीतका और फिर आर्त रौद्र आदि कुध्यानों और शुक्ल ध्यानोंका वर्णन है । अन्तमें कहा है- सुकल ध्यान ओषद लगै, मिटै करमको रोग ।
कोइला छोड़े कालिमा, होत अगनि-संजोग ।। ३३ इसके प्रारम्भमें गुरु भानुचन्द्रका स्मरण किया है।
१३ अध्यातम-बत्तीसी - ३२ दोहोंमें चेतन जीव और अचेतन पुद्गलका भेद समझाया है -
चेतन पुद्गल यौं मिले, ज्यौं तिलमैं खलि तेल । प्रगट एकसे देखिए, यह अनादिको खेल ।। ४ ज्यौं सुबास फल-फूलमैं, दही-दूधमैं घीव । पावक काठ-पखानमैं, त्यौं सरीरमैं जीव ।। ७ भवबासी जानै नहीं, देव धरम गुरु भेद । परथौ मोहके फंदमै, करै मोलको खेद ॥ २० देव धरम गुरु हैं निकट, मूढ़ न जानै ठौर । बंधी दिष्टि मिथ्यातसौं, लखै औरकी और ॥ २२ भेखधारिकौं गुरु कहै, पुन्नवंतकौं देव ।
धरम कहै कुलरीतकों, यह कुकर्मकी टेव ॥ २३ १४ ज्ञान-पचीसी अपने मित्र उदयकरणके और अपने हितके लिए २५ दोहोंमें ज्ञानगर्भ उपदेश दिया गया है
सुर-नर-तिर्यग जोनिमैं, नरक निगोद भमंत । महामोहकी नींदसौं, सोए काल अनंत ॥ १ जैसे जुरके जोरसौं, भोजनकी रुचि जाइ । तैसे कुकरमके उदै, धर्मवचन न सुहाइ ॥ २
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