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तत्त्वानुशासन
ध्येय के भेदों का स्वरूप वाच्यस्य वाचकं नाम प्रतिमा स्थापना मता ।
गुणपर्ययवद्रव्यं भावः स्याद् गुणपर्ययौ ॥१०॥ अर्थ-वाच्य के वाचक को नाम कहते हैं। प्रतिमा स्थापना कही गई है। गुण एवं पर्याय वाला द्रव्य कहलाता है तथा गुण और पयायें भाव हैं ॥१०॥
धर्म्यध्यान के दस भेद पाये जाते हैं-अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय । ( चा० सा० )
संस्थानविचय धर्म्यध्यान पिण्डस्थ-पदस्थ-रूपस्थ और रूपातीत के भेद से चार प्रकार का कहा है
पदस्थंमन्त्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।
(४८ | द्र० सं० टोका में उद्धृत) मन्त्रवाक्यों में स्थिति पदस्थ ध्यान है, निजात्मा का चितवन पिण्डस्थ ध्यान है, सर्वचिद्रूप का ध्यान और निरंजन का ( सिद्ध परमात्मा अथवा त्रिकाली शुद्धात्मा का ) ध्यान रूपातीत ध्यान है। पदस्थध्यान
पदान्यालम्ब्या पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते ।
त पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः ।। एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के पञ्चपरमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्रों का उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं । (वसु० श्रा० ४६४ ) पदस्थध्यान के योग्य मूलमन्त्रों का निर्देश
एकाक्षरी मन्त्र-(१) “अ” (२) प्रणवमन्त्र "ॐ" (३) अनाहतमन्त्र "ह" (४) माया वर्ण ह्रीं (५) झ्वों (६) श्री।
दो अक्षरी मन्त्र-(१) "अहं" (२) सिद्ध । तीन अक्षरी मन्त्र-(१) ॐ नमः (२) ॐ सिद्ध (३) सिद्धेभ्यः । चार अक्षरी मन्त्र-(१) अरहंत / अरिहंत ।
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