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________________ ५९ तत्त्वानुशासन संस्थान ( नामक धर्म्यध्यानों) का आगम के अनुसार आकुलता रहित चित्त से चिन्तन करे ।। ९८ ।। विशेष-आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनकी विचारणा के लिये मन को एकाग्र करना धर्म्यध्यान है। अन्यन्त, सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को विषय करने वाला आगम है, क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान के विषय से रहित मात्र श्रद्धा करने योग्य पदार्थ में एक आगम की ही गति है। उसे आज्ञा कहते हैं । धवल पुस्तक १३, पृष्ठ ७१ पर कहा है कि जो सुनिपुण है, अनादि निधन है, जीवों का हित करने वाली है, जगत् के जीवों द्वारा सेवित हैं, अमुल्य हैं, अमित हैं, अजित हैं, महान् अर्थ वाली है, महानुभाव हैं, महान् विषय वाली है, निरवद्य हैं, अनिपुणजनों को दुर्जेय है, नयभङ्गों तथा प्रमाण से गहन है, ऐसी जग के प्रदीप स्वरूप जिन भगवान् की आज्ञा का ध्यान करना चाहिए। संसार में दुःखों से संतप्त प्राणियों के दुःखों का निवारण का चिन्तन रूप अपाय विचय का उपदेश है। शभ और अशुभ भेदों में विभक्त हए कर्मों के उदय से संसार रूपी आवर्त की विचित्रता का चिन्तवन करने वाले मुनिराज के जो ध्यान होता है उसे विपाक विचय कहते हैं। यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव के विषय में विशिष्ट चिन्तनपूर्वक होता है। तीनों लोकों के आकार का प्रमाण का तथा उसमें रहने वाले जीव-अजीव तत्त्वों का, उनकी आयु आदि का बार-बार चिन्तन करना संस्थानविचय नाम का धर्मध्यान है। ध्येय के भेद नाम च स्थापनं द्रव्यं भावश्चेति चतुर्विधम् । समस्तं व्यस्तमप्येतद् ध्येमध्यात्मवेदिभिः ॥ ९९ ॥ अर्थ-अध्यात्म के ज्ञाताओं के द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार प्रकार के ध्यान योग्य पदार्थों का समस्त रूप से एवं व्यस्त ( अलग-अलग ) रूप से ध्यान किया जाना चाहिये ।। ९९ ॥ विशेष-ध्येय का लक्षण-ध्येयमप्रशस्तप्रशस्तपरिणामकारणंजो अशुभ तथा शुभ परिणामों का कारण हो उसे ध्येय कहते हैं । (चा० सा० १६७/२) ध्येय के भेद-श्रुतमर्थाभिधानं च प्रत्ययश्चेत्यदस्त्रिधा। शब्द, अर्थ और ज्ञान इस तरह तीन प्रकार का ध्येय कहलाता है। ( महा० पु० २१/१११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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