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तत्त्वानुशासन होते ही नहीं हैं, केवल तीन हीन संहनन होते हैं। इसलिये सप्तम गुणस्थान तक ही जीव की सत्ता है। धर्म्यध्यान में मन्दकषाय का होना आवश्यक है। कषायों की मन्दता तारतम्य से चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक होती है। अतः धzध्यान भी इन गणस्थानों में हो सकता है । आगम में पंचमकाल में ध्यान का अभाव शुक्लध्यान की अपेक्षा वर्णित समझना चाहिये, धर्यध्यान की अपेक्षा से नहीं। इसी कारण तत्त्वानुशासन में आगे पाँच कारिकाओं में धर्म्यध्यान के निरन्तर अभ्यास करने का उपदेश दिया गया है।
शक्त्यनुसार धर्म्यध्यान करणीय ध्यातारश्चन्न सन्त्यद्य श्रुतसागरपारगाः ।
तत्किमल्पश्रुतैरन्यैर्न ध्यातव्य स्वशक्तितः ॥ ८५ ॥ अर्थ-अगम, अगाध आगम समुद्र के पार पहुँचे हुए. ध्यान करने वाले मुनि यदि वर्तमान समय में नहीं पाये जाते हैं तो क्या इसका यह अर्थ है कि अल्प श्रुतज्ञान के धारी अन्य मुनिगणों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार ध्यान (धर्म्यध्यान ) नहीं करना चाहिये ? नहीं, ऐसा अर्थ कभो भी नहीं लगाया जा सकता ।। ८५ ।।
विशेष-द्वादशांग श्रुतज्ञान ग्यारह अंग और चौदह पूर्वमय विशाल है। इसमें १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ अर्थात् एक कम इकट्ठी प्रमाण अंगप्रविष्ट और अंग बाह्यश्रुत के समस्त अपुनरुक्त अक्षर हैं। द्वादशांग के समस्त पद एक सौ बारह तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच हैं।
धर्म्यध्यान के लिये द्वादशांश का पूर्ण ज्ञान, अथवा अंग पूर्व का ज्ञान हो ही यह आवश्यक नहीं, मात्र अष्टप्रवचनमातृका ( ५ समिति ३ गुप्ति) का ज्ञान अपने आप में मुक्ति का साधक है। देवागमस्तोत्र में समन्तभद्र आचार्य लिखते हैं
अज्ञानान्मोहिनो बन्धा नाऽज्ञानाद्वीत-मोहतः ।
ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ।। ९८ ।। मोह रहित अल्पज्ञान से मोक्ष होता है । मोह सहित अल्पज्ञान अथवा बहुज्ञान भी बंध का कर्ता है। तात्पर्य है कि धर्म्यध्यान के लिये अल्पज्ञान वालों को भी प्रयत्न/पुरुषार्थ करना चाहिए। अल्पज्ञान है अतः ध्यान नहीं कर सकते हैं ऐसा बहाना करना आलसी प्रमादियों का काम है, मोक्षार्थी ऐसा अनर्थ कभी नहीं करते।
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