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तत्त्वानुशासन
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अर्थ - इस समय यहाँ जिनेन्द्र भगवन्तों ने शुक्लध्यान का निषेध किया है किन्तु श्रेणियों ( उपशम एवं क्षपक ) के पहले रहने वाले लोगों के धर्म्यध्यान को कहा है ।। ८३ ।।
विशेष - पञ्चमकाल में धर्म्यध्यान हो सकता है । इस तथ्य का कथन करते हुए देवसेनाचार्य ने लिखा है—
अज्जवि तिरयणवंता अप्पा झाऊण जंति सुरलोयं । तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि गिव्वांगं ।। १५ ।।
-तत्त्वसार
अर्थात् आज भी इस पंचमकाल में मध्यलोकवासी मानव आत्मा का ध्यान करके स्वर्गलोक को जा सकते हैं तथा वहाँ से च्युत हो मानव जन्म धारण करके मोक्ष को पा सकते हैं ।
वज्रवृषभनाराचसंहननी के ही ध्यान का कथन शुक्लध्यान की अपेक्षा से यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः । श्रेण्योर्ध्यानं प्रतीत्योक्तं तन्नाधस्तान्निषेधकम् ॥ ८४ ॥
अर्थ - और जो वज्रवृषभनाराचसंहनन वाले के ध्यान होता हैऐसा आगम में कथन है वह श्रेणियों ( उपशमक एवं क्षपक ) में होने वाले ध्यान ( शुक्लध्यान ) के प्रति कहा गया है । वह कथन नीचे के गुणस्थानों में ध्यान का निषेध करने वाला नहीं है ॥ ८४ ॥
विशेष - वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच ये तीन उत्तम संहनन हैं । इनमें मुक्ति प्राप्ति का कारण प्रथम वज्रवृषभनाराचसंहनन होता है। ध्यान तप का लक्षण करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है“उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तारोधोध्यानमान्तर्मुहूर्तात् । ९/२७
अर्थात् उत्तम संहनन वाले का अन्तर्मुहूर्त तक एकाग्रतापूर्वक चिन्ता का निरोध ध्यान कहलाता है ।
उत्तम संहननधारी हो श्रेणी पर आरोहण करके आठवें गुणस्थान पर जा सकते हैं । तत्त्वार्थसूत्र का कथन प्रशस्त ध्यान की प्रधानता की अपेक्षा है । क्योंकि धर्म्यध्यान तो होन संहनन वालों के भी हो सकता है, परन्तु इसका काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त ही होगा । आजकल तीन उत्तम संहनन
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