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तत्त्वानुशासन कारण कि ध्यान और स्वाध्याय करते रहने से ही परमात्मा कर्म मल रहित शुद्ध आत्मा-प्रकाशित होने लगता है।
पञ्चमकाल में ध्यान न मानने वाले अज्ञानी येऽत्राहुन हि कालोऽयं ध्यानस्य ध्यायतामिति । तेहन्मतानभिज्ञत्वं ख्यापयंत्यात्मनः स्वयं ॥ ८२ ॥ अर्थ-इस विषय में जो लोग कहते हैं कि यह पञ्चमकाल ध्यान का समय नहीं है, वे लोग अपने आपकी अर्हन्त भगवान् के मत को अज्ञानता को स्वयं प्रकट करते हैं ।। ८२ ॥
विशेष—इसी प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति देवसेनाचार्य ने तत्त्वसार में की है___संकाकखागहिया विसयवसत्था समग्गयब्भद्रा।
एवं भणंति केई णहु कालो होइ झाणस्स ॥१४॥ अर्थात् जो लोग ऐसा कहते हैं कि यह ध्यान के योग्य काल नहीं है, वे वास्तव में शंकाग्रस्त, विषयासक्त और सुमार्ग से भ्रष्ट हैं। कुछ लोग पञ्चमकाल में मोक्ष न हो सकने से ध्यान की भी असंभवता का कथन करते हैं। वे वास्तव में तत्त्वज्ञान से शून्य, प्रमादी एवं विषयभोगों में सुख मानने वाले लोग हैं। सम्यग्दष्टि कभी भी ऐसा नहीं कह सकता है, वह तो निरन्तर आत्म-प्रभावना में उद्योगी बना रहता है तथा आत्म. ध्यान करने का पुरुषार्थ करता है । वह अपने पुरुषार्थ में दुःखमा पञ्चमकाल को बाधक होने का बहाना नहीं करता है।
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी ।। ७६ ।।
-मोक्षपाहुड अर्थात् भरतक्षेत्र में इन पञ्चमकाल में मुनि के धय॑ध्यान होता है वह धर्म्यध्यान आत्म-स्वभाव में स्थित साधु के होता है ऐसा जो नहीं मानता है वह अज्ञानी है। अभी जिस ध्यान का निषेध है वह शुक्लध्यान है। मात्र शुक्लध्यान का निषेध पञ्चमकाल में आचार्यों ने कहा है, इससे ध्यान मात्र का लोप करना श्रुत का अवर्णवाद हो समझना चाहिये। पञ्चमकाल में शुक्लध्यान का निषेध श्रेणी के पूर्व धर्मध्यान का कथन अत्रेदानी निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः । धर्म्य ध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ॥ ८३ ॥
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