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तत्त्वानुशासन
आत्मा को अग्र कहने का कारण अथवांगति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्तितः । तत्त्वेषु चाग्रगण्यत्वादसावग्रमिदि स्मृतः ॥ ६२ ॥ अर्थ-ऊपर कहे हुए ध्यान के लक्षण में आये हुए पदों का निरुक्ति से भी अर्थ घटित करते हुए आचार्य कहते हैं कि "अंगति जानाति इति अग्रे" जो जानता हो उसका नाम अग्र है इस निरुक्ति से अग्र शब्द का अर्थ हआ आत्मा तथा च कि माने गये तत्त्वों में सबसे पहले गिना जाता है, इसलिये भी आत्मा को अग्र कहते हैं ।। ६२ ।।
द्रव्याथिकनयादेकः केवलो वा तथोदितः । अतःकरणवृत्तिस्तु चितारोधो नियंत्रणा ॥ ६३ ॥ अभावो वा निरोधः स्यात्स च चितांतरव्ययः। एकचितात्मको यद्वा स्वसंविञ्चितयोज्झितः ॥ ६४ ॥ अर्थ-द्रव्याथिक नय से आत्मा एक अथवा केवल कहा गया है। अन्तःकरण की वृत्तियों का नियन्त्रण चिन्तारोध कहलाता है । अभाव को निरोध कहते हैं और वह चिन्ताओं का नाश होना है। अथवा अन्य चिन्ताओं से रहित जो एकचिन्तात्मक आत्मा का ज्ञान है, वह अग्र आत्मा कहलाता है। ६३-६४ ॥
चिन्ताओं के अभावरूप ध्यान और ज्ञानमय आत्मा एक ही तत्रात्मन्यसहाये यच्चितायाः स्यान्निरोधनम् । तद्धयानं तदभावो वा स्वसंवित्तिमयश्च सः ॥ ६५ ॥ अर्थ-एक का अर्थ है सहाय रहित तथा अग्र का अर्थ है आत्मा उसमें जो मनोवृत्ति को लगाये रखना सो ध्यान है। इसी को अन्य चिन्ताओं का नाश कहते हैं, जो कि स्वसंवित्तिमय है ।। ६५ ।।
ध्यान व ध्यान का फल श्रुतज्ञानमुदासोनं यथार्थमितिनिश्चलम् । स्वर्गापवर्गफलदं ध्यानमांतर्मुहूर्ततः ॥ ६६ ॥ अर्थ-रागद्वेष से रहित, यथार्थ, अत्यन्त निश्चल श्रुतज्ञान को ध्यान
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