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तत्वानुशासन
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छद्मस्थों का ध्यान है तथा योगों का निरोध जिन केवलियों का ध्यान है ।
(२) ध्यानस्तव में भास्करनन्दि ने अनेक पदार्थों का आलम्बन लेने वाली चिन्ता के एक पदार्थ में नियन्त्रण को ध्यान कहा है तथा उसके जड़ता या तुच्छता रूप होने का निषेध किया है
'नानालम्बनचिन्तायाः यदेकार्थे नियन्त्रणम् ।
उक्तं देव ! त्वया ध्यानं न जाड्यं तुच्छतापि वा ॥ ६ ॥' व्यग्रता अज्ञान और एकाग्रता ध्यान
एकाग्रग्रहणं चात्र वैयग्रद्य विनिवृत्तये ।
व्यग्र ह्यज्ञानमेव स्याद्ध्यानमेकाग्रमुच्यते ॥ ५९ ॥ अर्थ - यहाँ ( ध्यान के स्वरूप में ) एकाग्रता का ग्रहण व्यग्रता या चञ्चलता को अलग करने के लिए है । क्योंकि व्यग्रता अज्ञान है और एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है ।। ५९ ।।
विशेष - अन्य पदार्थों की चिन्ता को छोड़कर एक पदार्थ का चिन्तन करना ही यहाँ पर व्यग्रता या चञ्चलता का अभाव कहा गया है । ध्यान के स्वरूप में जो एकाग्रता का ग्रहण किया गया है, उससे व्यग्रता का अभाव अभिप्रेत है । चञ्चलता अज्ञान रूप है तथा एकाग्रता ध्यान रूप है। चञ्चलता और एकाग्रता में परस्पर वैपरीत्य सम्बन्ध है ।
प्रसंख्यान, समाधि और ध्यान की एकता
प्रत्याहृत्य यदा चिन्तां नानालम्बनवर्तिनीम् । एकालम्बन एवैनां निरुणद्धि विशुद्धधीः ॥ ६० ॥ तदास्य योगिनो योग श्चिन्तैकाग्र निरोधनम् । प्रसंख्यानं समाधिः स्याद्ध्यानं स्वेष्टफलप्रदम् ॥ ६१ ॥
अर्थ - कषायादि मल के निकल जाने से निर्मल हो गई है बुद्धि जिसको ऐसा योगी, नाना वस्तुओं में लगी हुई चिन्ता को ( विचारों को ) उनसे खींचकर एक पदार्थ के चितवन में ही लगाये रखता है, उसमें ही रोके रखता है, तब उस योगी का वह योग, अपने अभीप्सित मनोरथ की सिद्धि करने वाला ध्यान कहलाता है । उसी को चिता का एक ओर लगाये रखना, प्रसंख्यान, समाधि का ध्यान कहते हैं ।। ६०-६१ ॥
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