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________________ तत्त्वानुशासन ४३ कहते हैं, जो अन्तर्मुहूर्त तक रहता है व स्वर्ग तथा मोक्ष रूप फल को देनेवाला है ॥ ६६ ॥ उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥ उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति को रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है । "चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् " - चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान है । (स० सि० ) निश्चयनयापेक्षा -- इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है उस चित्त की स्थिरता को ध्यान कहते हैं । ( अ० घ० ) -तत्त्वार्थ सूत्र ९/२७ व्याकरणशास्त्र से ध्यान का अर्थ ध्यायते येन तद्वयानं यो ध्यायति स एव वा । यत्र वा ध्यायते यद्वा ध्यातिर्वा ध्यानमिष्यते ॥ ६७ ॥ अर्थ-जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है वह ध्यान है अथवा जो ध्यान किया जाता है वह ध्यान है । अथवा जिसमें ध्यान किया जाता है वह ध्यान है और ध्यान मात्र ध्यान कहलाता है || ६७ ॥ श्रुतज्ञानरूप स्थिर मन ही वास्तविक ध्यान श्रुतज्ञानेन मनसा यतो ध्यायन्ति योगिनः । ततः स्थिरं मनो ध्यानं श्रुतज्ञानं च तात्त्विकम् ॥ ६८ ॥ अर्थ - चूँकि योगी लोग श्रुतज्ञान रूपी मन के द्वारा ध्यान करते हैं, इसलिए वास्तव में श्रुतज्ञान रूपी स्थिर मन ध्यान कहलाता है ॥ ६८ ॥ ज्ञान और आत्मा की अभिन्नता ज्ञानादर्थांतरादात्मा तस्माज्ज्ञानं न चान्यतः । एकं पूर्वापरीभूतं ज्ञानमात्मेति कीर्तितम् ॥ ६९ ॥ अर्थ - आत्मा ज्ञान से भिन्न या पृथक् सत्ता रखनेवाला पदार्थ नहीं है तथा ज्ञान भी आत्मा से पृथक् सत्ता रखनेवाला पदार्थ नहीं है । इसलिये पूर्वापरीभूत जो एक ज्ञान है उसको ही आत्मा कहते हैं ।। ६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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