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________________ ३४ तत्त्वानुशासन धर्मध्यान के भेद मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा । अप्रमत्तषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥ ४७ ॥ अर्थ-इनमें मुख्य और उपचार के भेद से धर्मध्यान दो प्रकार का होता है। अप्रमत्त नामक (सप्तम) गुणस्थान वालों में वह मुख्य और अन्य (चतुर्थ, पञ्चम एवं षष्ठ) गुणस्थान वालों में औपचारिक होता है।। ४७ ॥ विशेष-धर्म्यध्यान के स्वामियों के विषय में पर्याप्त मतवैभिन्य रहा है। तत्त्वार्थसूत्र में 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्' कहकर भेदों के विषय में तो उल्लेख किया गया है, किन्तु स्वामियों के विषय में कथन नहीं है। सर्वार्थसिद्धि टीका में अवश्य 'तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति' कहकर चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान तक के स्वामित्व का निर्देश किया है। बृहद्रव्यसंग्रह की टीका में इसे और स्पष्ट किया गया है___'अतः परम् आर्तरौद्रपरित्यागलक्षणमाज्ञापायविपाकसंस्थानविचयसंज्ञं चतुर्भेदभिन्नं तारतम्यबुद्धिक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधानचतुर्गुणस्थानवर्तिजीवसम्भवम् ।' (बृहद्रव्यसंग्रह ४८ की टीका ।) यहाँ प्रकृत श्लोक में केवल इतना निर्देश किया गया है कि धर्म्यध्यान मख्य और उपचार के भेद से दो प्रकार का होता है। मख्य धर्म्यध्यान अप्रमत्त संयत नामक गुणस्थानवर्ती के तथा शेष (अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तविरत नामक) गुणस्थानवतियों के उपचार धर्म्यध्यान होता है। सामग्री के भेद से ध्याता व ध्यान के भेद द्रव्यक्षेत्रादिसामग्री ध्यानोत्पत्तौ यतस्त्रिधा । ध्यातारस्त्रिविधास्तस्मात्तेषां ध्यानान्यपि त्रिधा ॥४८॥ अर्थ-चूँकि ध्यान की उत्पत्ति के लिये कारणीभूत द्रव्यक्षेत्रादि रूप सामग्री तीन प्रकार की है अतः ध्यान करने वाले व्यक्तियों के तीन प्रकार हैं तथा उन व्यक्तियों का ध्यान भो तीन प्रकार का है अर्थात् द्रव्य, क्षेत्रादि सामग्री उत्तम मध्यम व जघन्य के भेद से तीन प्रकार को है अतः उसके निमित्त से ध्याता व ध्यान भी तीन प्रकार के हैं ॥ ४८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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