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________________ तत्त्वानुशासन विशेष-अमितगतिश्रावकाचार में पन्द्रहवें परिच्छेद के २४-२९ श्लोकों में धर्म्यध्यान के ध्याता का विस्तार से वर्णन किया है। वहाँ कहा गया है कि जो स्वभाव से कोमल परिणामों से युक्त हो, कषायरहित हो, इन्द्रियविजेता हो, ममत्व रहित हो, अहंकार रहित हो. परीषहों को पराजित करने वाला हो, हेय आर उपादेय तत्त्व का ज्ञाता हो, लोकाचार से पराङ्मुख हो, कामभोगों से विरक्त हो, भवभ्रमण से भयभीत हो, लाभालाभ, सुखदुःख, शत्रुमित्र, प्रियाप्रिय, मानापमान एवं जीवनमरण में समभाव का धारक हो, आलस्यरहित हो, उद्वेग रहत हो, निद्राविजयी हो, दृढासन हो, अहिंसादि सभी व्रतों का अभ्यासी हो, सन्तोपयुक्त हो, परिग्रहरहित हो, सम्यग्दर्शन से अलंकृत हो, शान्त हो, सुन्दर एवं असून्दर वस्तु के प्रति अनुत्कण्ठित हो, भय रहित हो, देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति करने वाला हो, श्रद्धा गुण से युक्त हो, कर्मशत्रुओं को जीतने में शूरवीर हो, वैराग्ययुक्त हो, मूर्खता रहित हो, निदान रहित हो, पर की अपेक्षा से रहित हो, शरीर रूपी पिंजरे को भेदने का इच्छुक हो और अविनाशी शिवपद को जानने का अभिलाषो हो-ऐसा ध्याता भव्य पुरुष प्रशंसनीय होता है। गुणस्थान की अपेक्षा धर्म्यध्यान के स्वामी अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदृष्टिर्देशसंयतः । धर्मध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थे स्वामिनः स्मृताः ॥ ४६॥ अर्थ-अप्रमत्त, प्रमत्त, अविरति सम्यग्दृष्टि एवं देशसंयत ये चार तत्त्वार्थ में धर्मध्यान के स्वामी कहे गये हैं ।। ४६ ।। विशेष-(१) अप्रमत्त अर्थात् सप्तम गुणस्थानवर्ती, प्रमत्त अर्थात् षष्ठम गुणस्थानवर्ती, सदृष्टि अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि तथा देशसंयत अर्थात् पंचम गुणस्थानवर्ती ये चारों अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सप्तम गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीव धर्मध्यान के अधिकारो हैं। मिथ्याष्टियों को धर्मध्यान नहीं हो सकता है। आदिपुराण (२१/५५-५६), ज्ञानार्णव (२८), ध्यानस्तव (१५-१६) में भी धर्म्यध्यान के स्वामियों का निर्देश करते हुए उसका सद्भाव असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत तक चार गुणस्थानों में माना गया है। इन सभी का आधार तत्त्वार्थवार्तिक का धर्म्यध्यान के स्वामिविषयक निर्देश है । तत्त्वानुशासन के इस श्लोक में गृहीत 'तत्त्वार्थे' पद के द्वारा सम्भवतः तत्त्वार्थवार्तिक की ही सूचना दी गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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