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तत्त्वानुशासन २. ध्यान-(ध्येय पदार्थ में निश्चलता) ३. ध्यान का फल-( संवर एवं निर्जरा ) ४. ध्येय-(ध्यान करने योग्य पदार्थ ) ५. विषय-( जिसका ध्यान करना हो ) ६. स्थान-(ध्यान योग्य निर्विघ्न स्थान ) ७. समय-(जब ध्यान करना हो) ८. रीति-(जिस प्रकार ध्यान करना हो)।
ध्याता का स्वरूप तत्रासन्नी भवेन्मुक्तिः किञ्चिदासाद्य कारणम् । विरक्तः कामभोगेभ्यस्त्यक्तसर्वपरिग्रहः ॥ ४१ ॥ अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीक्षां जैनेश्वरी श्रितः । तपःसंयमसम्पन्नः प्रमादरहिताशयः ॥ ४२ ॥ सम्यग् निर्णीतजीवादिध्येयवस्तुव्यवस्थितिः । आरौिद्रपरित्यागाल्लब्धचित्तप्रसत्तिकः ॥४३॥ मुक्तलोकद्वयापेक्षः षोढाशेषपरीषहः । अनुष्ठित क्रियायोगो ध्यानयोगे कृतोद्यमः ॥ ४४ ॥ महासत्त्वः परित्यक्तदुर्लेश्याऽशुभभावनः। इतीदृग्लक्षणो ध्याता धर्मध्यानस्य सम्मतः ॥ ४५ ॥ अर्थ-अर्थात् जो निकट भविष्य में कार्य मूल से छूटने वाला है। उनमें जिसके मक्ति समीपवर्तिनी हो, जो किसी कारण को पाकर कामभोगों से विरक्त हो, समस्त परिग्रहों का त्यागी हो, जिसने श्रेष्ठ आचार्य के पास जाकर जैनधर्मोक्त दीक्षा को ग्रहण कर लिया हो, जो तपस्या एवं संयम से सम्पन्न हो, प्रमाद से रहित हृदय वाला हो जिसने ध्यान करने योग्य जीवादि पदार्थों की अवस्था का अच्छी तरह से निर्णय कर लिया हो, जो आर्त एवं रोद्र ध्यानों के परित्याग से चित्त की निर्मलता को प्राप्त हो, दोनों लाकों को अपेक्षा से रहित हो, सम्पूर्ण परीषहों को सहन करने वाला हो, समस्त क्रियाओं का अनुष्ठान कर चुका हो, ध्यानयोग के विषय में उद्यमशील हो, महान् बलशाली हो तथा जिसने अशुभ लेश्याओं एवं अशुभ ध्यानो का त्याग कर दिया हो-इस प्रकार के इन लक्षणों वाला नरपुंगव ध्याता धर्मध्यान के योग्य माना गया है ।।४१-४५।।
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