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तत्त्वानुशासन
शरीर पर चिक्कण पदार्थ नहीं लगाते हुए व्यायाम आदि करता है तो वह धूल से लिप्त नहीं होता वैसे ही वही जोव सम्यग्दर्शन, संयम सहित नाना चेष्टाओं को करता हुआ भी विभावपरिणामों का त्याग व शुद्धात्मतत्त्व का श्रद्धान करता हुआ बंध के कारणों का विनाश करता हुआ मुक्तावस्था को प्राप्त होता है।
बन्ध कारणों के अभाव में मोक्ष ततस्त्वं बंधहेतूनां समस्तानां विनाशतः । बन्धप्रणाशान्मुक्तः सन्न भ्रमिष्यसि संसृतौ ॥ २२ ॥ अर्थ-तदनन्तर समस्त बन्धहेतुओं के नष्ट हो जाने से बन्ध के भो नष्ट हो जाने के कारण तुम मुक्त होकर संसार में परिभ्रमण नहीं करोगे ॥ २२॥
विशेष-(१) संसार परिभ्रमण का कारण बन्ध है। बन्ध राग-द्वेष आदि के कारण होने वाली वैभाविक परिणति से होता है । ये ही हो बन्ध के कारण हैं । क्योंकि सकषाय होने के कारण ही जीव कर्मयोग्य पुद्गलों का आदान करता है और वही बन्ध कहलाता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा गया है। 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणोयोग्यान्पुद्गलानादत्ते सः बन्धः ।'
-तत्त्वार्थसूत्र ८३ बन्ध के हेतुओं के नष्ट हो जाने पर बन्ध का स्वतः ही नाश समझना चाहिये। बन्ध के अभाव में जोव सर्व कर्मों से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है और उसे संसार में परिभ्रमण नहीं करना पड़ता है। "बंधहेत्वाभावनिर्जराभ्याम् कृत्स्नकर्मविप्रमाक्षे मोक्षः" ।
-तत्त्वार्थसूत्र १०/२ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के कारण हैं। बंध के कारणों में चतुर्थ गृणस्थान में मिथ्यात्व, षष्ठम में अविरति, सप्तम में प्रमाद, ग्यारहवें बारहवें में कषाय और चौदहवं, गुणस्थान में योग का अभाव हो जाता है। बंध के सम्पूर्ण कारणों का अभाव होने पर यह जोव सर्वकर्मों की निर्जरा कर सम्पूर्ण कर्मों से अत्यन्त रहित हो जिस अवस्था को प्राप्त होता है वह अवस्था मोक्ष है।
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