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तत्त्वानुशासन
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परकार विकारी भाव उत्पन्न हो जाते हैं । ज्ञानी आत्मा को इन विकारी भावों का त्याग करके आत्मा को परद्रव्यों से सर्वथा भिन्न समझना चाहिये । समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने अज्ञानी आत्मा के अहङ्कार, ममकार आदि का सुन्दर विवेचन किया है
वा ॥
"अहमेदं एदमहं अहमेद सम्हि अत्थि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सचित्ताचित्तमिस्सं आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि । हो हिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि || एयत्तु असंभूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो । भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ॥" अर्थात् अपने से भिन्न जो सचित्त, अचित्त अथवा मिश्रित पर द्रव्य है उनमें 'मैं यह हूँ' 'यह मैं हूँ' 'मैं इसका हूँ' 'यह मेरा है' 'यह पहले मेरा था' 'मैं भी पहले इसका था' 'यह मेरा फिर होगा' 'मैं भी इसका होउँगा' । इस प्रकार से मिथ्या आत्मविकल्पों को मूर्ख व्यक्ति करता है किन्तु ज्ञानी व्यक्ति वास्तविकता को जानता हुआ उन विकल्पों को नहीं करता है | बंध के कारणों का विनाश
बंध हेतुषु मुख्येषु नश्यत्सु क्रमशस्तव । शेषोऽपि रागद्वेषादिबंध हेतु विनश्यति ॥ २१ ॥
अर्थ- -बन्ध के मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानादि प्रमुख कारणों के नष्ट हो जाने पर क्रमशः तुम्हारे बचे हुए राग, द्वेष आदि बन्ध के कारण भी धीरे-धीरे नष्ट हो जायँगे ॥ २१ ॥
विशेष - १) अहंकार, ममकार आदि बन्ध के मूल कारण हैं । इनके कारण ही राग-द्वेष आदि की उत्पत्ति होती है । अर्थात् राग-द्वेष आदि का कारण अहंकार, ममकार, परकार है । जब अहंकार आदि नाश को प्राप्त हो जाते हैं, तो राग-द्वेष आदि का उसी प्रकार नाश हो जाता है जिस प्रकार तन्तुओं के दग्ध हो जाने पर वस्त्र का दाह हो जाता है । 'उपादानकारणाभावे कार्याभाव: ' यह सामान्य नियम है ।
यथा कोई भी पुरुष अपने शरीर पर तेलादि चिक्कण पदार्थ लगाकर धूल से धूसरित स्थान पर जाकर व्यायाम आदि करे तो वह धूल से लिप्त हो जाता है तथैव मिथ्यादृष्टि असंयमी जीव रागादि विभावपरिणामों को करता हुआ कर्मरज से लिप्त होता है । तथा यदि वही पुरुष यदि अपने
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