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होकर बन्ध हो जाता है । बन्धन में योनियों में भ्रमण करता रहता है । से नवोन कर्मों का बन्ध होता है । कहा है
तत्त्वानुशासन
पड़ा हुआ जीव मोहवश ८४ लाख रागद्वेष सहित कर्मों का भोग करने समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने
'रत्तो बंधदि कम्मं मुचदि जीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।। १५० ।।
(२) वास्तव में मोह ही बन्ध का कारण है । देवसेनाचार्य ने तत्त्वसार में कहा है
'भु जन्ता कम्मफलं भावं मोहेण कुणइ सुहअसुहं । जइतं पुणो विबंध णाणावरणादि अट्ठविहं ॥
अर्थात् यदि कर्मों के फल को भोगते हुए शुभ-अशुभ रूप भाव मोह के वशीभूत हो करने लगे तो वह जीव पुनः ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों को बाँधता है । यही बात समयसारकलश में भी कही गई हैं
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः । रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारक: ।।
अज्ञानी जीव अपने आत्मा के स्वभाव को एवं पुद्गल के स्वभाव को ठीक-ठीक नहीं जानता है । इसलिए अपने आपको राग-द्वेष आदि रूप कर लेता है । अतएव कर्मों का बन्ध करता है ।
तस्मादेतस्य मोहस्य मिथ्याज्ञानस्य च द्विषः ।
ममाहंकारयोश्चात्मन्विनाशाय
कुरुद्यमम् ॥ २० ॥
अर्थ - इसलिये हे आत्मन् ! इस मिथ्यादर्शन ( मोह) एवं मिथ्याज्ञान के शत्रु होने के कारण ममकार एवं अहङ्कार के विनाश करने के लिए
उद्यम कर ॥ २० ॥
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विशेष - (१) परद्रव्यों को अपने रूप, अपने को पररूप और परद्रव्यों का स्वामी समझना अज्ञान है । भूतकाल अथवा भविष्य में भी इस तरह के होने की कल्पना करना अज्ञान है । जिस प्रकार अग्नि और ईंधन न कभी एक थे, न हैं और न होंगे। उसी प्रकार आत्मा और शरीरादि पर द्रव्य न कभी एक थे, न हैं और न होंगे। किन्तु मिथ्याज्ञान के कारण अग्नि और ईंधन को जैसे एक समझता है, उसी प्रकार आत्मा और परद्रव्यों को भी एक समझता है । इसके कारण आत्मा में अहङ्कार, ममकार और
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