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तत्त्वानुशासन जाता है । इसी का नाम मोक्ष है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के कारण हैं । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' तत्त्वार्थसूत्र १/१
पण्डित प्रवर दौलतरामजी ने मोक्षमार्ग में रत होने की प्रेरणा देते हुए कहा है
आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमाहि न तातै शिवमग लाग्यौ चहिये। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिव मग सो दुविध विचारो। जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो॥
-छहढाला ३/१ (२) योगसूत्रभाष्य को निम्नलिखित पंक्तियों में तत्त्वानुशासन के चतुर्थ एवं पञ्चम श्लोकों के भावों को हो प्रकारान्तर से अभिव्यक्त किया गया, है
"यथा चिकित्साशास्त्रं चतुव्यूहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्त्रं चतुव्य हमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति ।"
-योगसूत्रभाष्य २/१५ बन्ध का स्वरूप और उसके भेद तत्र बन्धः स हेतुभ्यो यः संश्लेषः परस्परम् ।
जीवकर्मप्रदेशानां स प्रसिद्धश्चतुर्विधः ॥ ६ ॥ अर्थ-उनमें ( हेयोपादेय तत्त्वों में ) से मिथ्यादर्शनादिक कारणों के द्वारा जो जीव और कर्मों के प्रदेशों का आपस में संश्लेष (मिल जाना) हो जाना है सो बन्ध है। वह चार भेद ( प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश ) वाला है ।। ६ ॥
विशेष-(१) अपने कारणों के माध्यम से जहाँ पर जीव एवं कर्मों के प्रदेश आपस में मिल जाते हैं, उसे ही बन्ध कहते हैं। नयचक्र में कहा गया है- 'कम्मादपदेसाणं अण्णोणपवेसणं कसायादो।'-नयचक्र १५/३ ___ राजबार्तिक में बन्ध का शाब्दिक व्याख्यान करते हुए कहा गया है कि जो बँधे या जिसके द्वारा बाँधा जाय अथवा बन्धनमात्र को बन्ध कहते हैं- 'बध्नाति, बध्यतेऽसौ, बध्यतेऽनेन बन्धमात्रं वा बन्धः ।'
-राजवार्तिक ५/२४
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