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तत्त्वानुशासन
(२) बन्ध के चार भेद हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । प्रकृतिबन्ध के आठ भेद कहे गये हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय,मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की स्थिति तीस कोटाकोटि सागर, मोहनोय की सत्तर कोटाकोटि सागर, नाम एवं गोत्र कर्मों की बीस कोटाकोटि सागर तथा आयु कर्म की तैतीस सागर उत्कृष्ट स्थिति मानो गई है। कर्मों को स्थिति का वर्णन ही स्थितिबन्ध के अन्तर्गत आता है । अनुभाग का अर्थ कर्मों को फलदान शक्ति है। कर्मों में जो तोव या मन्द फल देने की शक्ति पड़ती है उसे अनुभाग बन्ध कहते हैं तथा ज्ञानावरण आदि कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबन्ध कहते हैं ।
प्रकृतिबन्ध एवं प्रदेशबन्ध योगजन्य हैं तथा स्थिति एवं अनुभागबन्ध कषायजन्य हैं। योग एवं कषाय की तीव्रता मन्दता से बन्धों में अन्तर हो जाता है।
बन्ध का कार्य संसार बन्धस्य कार्यः संसारः सर्वदुःखप्रदोऽङ्गिनाम् । द्रव्यक्षेत्रादिभेदेन स चानेकविधः स्मृतः ॥ ७ ॥ अर्थ-प्राणियों को सभी प्रकार के दुःखों को देने वाला संसार बन्ध का कार्य है । वह संसार द्रव्य, क्षेत्र आदि भेद से अनेक प्रकार का कहा गया है ॥ ७॥
विशेष- १) संसार का परिभ्रमण बन्ध का कार्य है । मिथ्यात्व आदि के कारण जब कर्मपुद्गल आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाह हो जाते हैं तब कर्मबद्ध आत्मा परतन्त्र होकर उसी प्रकार अपना इष्ट नहीं कर पाता है तथा भवभ्रमण करता हुआ शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को भोगता है, जिस प्रकार बेडी आदि से बद्ध व्यक्ति पराधीन होकर इच्छानुसार अभीष्ट स्थान में भ्रमण नहीं कर पाता है एवं शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को भोगता है । वस्तुतः संसार बन्ध का कार्य है !
(२) त्यागने योग्य परपदार्थ के ग्रहण करने को बन्ध कहते हैं । अमृतचन्द्राचार्य तत्त्वार्थसार में कहते हैं
'हेयस्यादानरूपेण बन्धः स परिकीर्तितः।'
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