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________________ १३२ तत्त्वानुशासन ततोऽवतीर्य मत्येऽपि चक्रवादिसम्पदः । चिरं भुक्त्वा स्वयं मुक्त्वा दीक्षां दैगम्बरों श्रितः ॥२२८॥ वज्रकायः स हि ध्यात्वा शुक्लध्यानं चतुर्विधम् । विधूयाष्टापि कर्माणि श्रयते मोक्षमक्षयम् ॥२२९॥ शेष-वहाँ (स्वर्ग) से मर्त्यलोक में भी अवतीर्ण होकर चक्रवर्ती आदि की सम्पत्तियों को चिरकाल तक भोग कर और फिर स्वयं त्याग कर दिगम्बर दीक्षा का आश्रय लेनेवाला वज्रवृषभनाराचसंहननधारी वह योगी चार प्रकार के शुक्यध्यान का ध्यान करके आठों कर्मों को नष्ट कर अविनाशी मोक्ष का आश्रय लेता है ॥ २२८-२२९ ।। आत्यन्तिकः स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीवकर्मणोः । स मोक्षः फलमेतस्य ज्ञानाद्याः क्षायिकाः गुणाः ॥२३०॥ अर्थ-जीव और कर्म का अपने ही कारण से जो अत्यन्त अलगाव है, वह मोक्ष कहलाता है। ज्ञान आदि क्षायिक गुणों का प्रकटीकरण इस (मोक्ष) का फल है ॥२३०॥ विशेष-मुच धातु से मोक्ष शब्द की सिद्धि हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है छूटना । श्री समन्तभद्र स्वामी के अनुसार जन्मजरामयमरणैः शोकैदुःखैर्भयैश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥ १३ ॥ -रत्नकरण्डकश्रावकाचार अविनाशी, जन्म-जरा-बुढ़ापा, रोगशोक, मृत्यु, दुख व सातभयों से रहित अक्षय अतीन्द्रिय सुखवाली परमकल्याणकारी अवस्था मोक्ष है। 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' । -तत्त्वार्थसूत्र २/१० बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यधिक क्षय होना मोक्ष है। जब आत्मा कर्ममलकलंक (राग-द्वेष-मोह) और शरीर को अपने से सर्वथा जदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं। -(स० सि० ११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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