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________________ तत्वानुशासन १३१ अर्थ-कषाय रूपी रज के क्षय अथवा उपशम हो जाने से तथा विशुद्ध गुण के योग से यह शुक्लध्यान माणिक्य की शिखा की तरह अत्यन्त निर्मल और कम्पन से रहित होता है ।।२२२।। रत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बन्धनिबन्धनम् । ध्यानमभ्यस्यतां नित्यं यदि योगिन्मुमुक्षसे ॥२२३॥ अर्थ-हे योगिन् ! यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो रत्नत्रय को ग्रहण करके बन्ध के कारण को त्याग कर हमेशा ध्यान का अभ्यास करो ॥२२३॥ ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण तुद्यन्मोहस्य योगिनः । चरमाङ्गस्य मुक्तिः स्यात्तदा अन्यस्य च क्रमात् ॥२२४॥ अर्थ-तब ध्यान के अभ्यास के उत्कर्ष से मोहनीय कर्मका नाश करने वाले चरमशरीरी योगी को मुक्ति हो जाती है तथा अन्य ( अचरमशरीरी ) की अनुक्रम से मुक्ति होती है ॥२२४॥ तथा ह्यचरमाङ्गस्य ध्यानमभ्यस्यतः सदा । निर्जरा संवरश्च स्यात्सकलाशुभकर्मणाम् ॥२२५॥ अर्थ-ध्यान का सदा अभ्यास करने वाले अचरम शरीरी योगी की समस्त अशुभ कर्मों की निर्जरा और संवर होता है ।। २२५ ॥ आस्रवन्ति च पुण्यानि प्रचुराणि प्रतिक्षणम् । यैर्महद्धिर्भवत्येष त्रिदशः कल्पवासिषु ॥२२६॥ अर्थ-और (उस अचरमशरीरी योगी के) प्रतिक्षण प्रचुर पुण्य कर्मों का आस्रव होता रहता है, जिनके द्वारा वह कल्पवासो देवताओं में महान् ऋद्धिसम्पन्न देव हो जाता है ।। २२६ ।। तत्र सर्वेन्द्रियामोदि मनसः प्रोणनं परम् । सुखामृतं पिबन्नास्ते सुचिरं सुरसेवितम् ॥२२७॥ अर्थ-वहाँ सम्पूर्ण इन्द्रियों को आनन्दित करने वाले और मन को अत्यन्त प्रसन्न करने वाले सुखरूपी अमृत का पान करता हुआ वह देवताओं द्वारा सेवित होकर चिरकाल तक रहता है ॥ २२७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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