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तत्वानुशासन मोक्ष के भेद हैं-सामान्य की अपेक्षा मोक्ष एक ही प्रकार है। द्रव्यभाव और भोक्तव्य की दृष्टि से अनेक प्रकार का है। (रा० वा० १)
वह मोक्ष तीन प्रकार का है-जीवमोक्ष, पुद्गलमोक्ष और जीव पुद्गलमोक्ष।
(ध० १३) क्षायिकज्ञान, दर्शन व यथाख्यातचारिन नामवा ले (शुद्धरत्नत्रयात्मक) जिन परिणामों से निरवशेष कर्म आत्मा से दूर किये जाते हैं उन परिणामों को मोक्ष अर्थात् भावमोक्ष कहते हैं और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना द्रव्यमोक्ष है।
_(द्रव्यसंग्रह) मुक्तात्माओं की लोकान में स्थिति कर्मबन्धनविध्वंसादूर्ध्वव्रज्यास्वभावतः । क्षणेनैकेन मुक्तात्मा जगच्चूडाग्रमृच्छति ॥२३१॥ अर्थ-कर्मों के बन्धन का विध्वंस हो जाने से और ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने के कारण मुक्त जीव एक ही क्षण में संसार के चूडान भाग तक चला जाता है ।। २३१ ।।
विशेष-समस्त कर्मों का क्षय होते ही तुरन्त उसी समय मुक्त जीव ऊपर की ओर लोक के अन्त तक जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-'तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् ।' १०५, सर्वार्थसिद्धि विमान से १२ योजन ऊपर ८ योजन मोटी १ राजू पूर्व पश्चिम और ७ राजू उत्तर दक्षिण की ओर ईषत्प्राग्भार नामक अष्टम पृथिवी के ऊपरी भाग में बीचोंबीच मनुष्य लोक प्रमाण ४५ योजन समतल अर्द्ध गोलाकार सिद्धशिला है। वहाँ सिद्ध विराजमान रहते हैं। मुक्त जीवों के ऊर्ध्वगमन में चार कारण माने गये हैं-१. पूर्व प्रयोग अर्थात् मोक्ष के लिए किया गया पुरुषार्थ, २. संग रहित हो जाना, ३. बन्ध का नाश हो जाना और ४. ऊर्ध्वगमन स्वभाव होना । तत्वार्थसूत्र में कहा गया है-'पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च।' १०/६. जीव का यद्यपि ऊर्ध्व गमन स्वभाव है किन्तु मुक्तजीव लोकाग्र या जगच्चूडान में ही ठहर जाते हैं, क्योंकि जीव और पुद्गलों का गमन धर्म द्रव्य की सहायता से होता है और धर्मद्रव्य लोकाकाश तक ही पाया जाता है। आगे अलोकाकाश में धर्मद्रव्य का अभाव है।
मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन करने में ऊर्ध्वगमन स्वभाव रूप स्वयं का
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