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तत्त्वानुशासन
है । ध्यान के समय वह उपयोग से छुटकारा पाकर निश्चयनय के आश्रय से शुद्धात्मा में अपने को वैसे ही लीन कर लेता है जैसे पानी में नमक की डली एकमेक हो जाती है । तब स्वानुभव प्रकट हो जाता है और यही स्वानुभव संवरपूर्वक निर्जरा का कारण होता है। देवसेनाचार्य तत्त्वसार में कहते हैं
मणवयणकायरोहे रुज्झइ कम्माण आसवो णणं ।
चिरबद्धं गलइ सयं फलरहियं जाइ जोईणं ॥ ३२ ॥ अर्थात् योगी के मन-वचन-काय रुक जाने पर निश्चय से कर्मास्रव रुक जाता है तथा दोघंकाल में बाँधे गये कर्म बिना फल दिये ही स्वयं गल जाते हैं। यथा यथा समाध्याता लप्स्यते स्वात्मनि स्थितिम् । समाधिप्रत्ययाश्चास्य स्फुटिष्यन्ति तथा तथा ॥१७९॥
अर्थ-अच्छी तरह ध्यान करने वाला यह आत्मा जैसे-जैसे अपनी आत्मा में स्थिति को प्राप्त करता है, वैसे-वैसे इसकी समाधि के कारण भी स्पष्ट हो जाते हैं ।। १७९॥ विशेष-श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेश नामक ग्रन्थ में लिखते हैं
यथा-यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा-तथा न रोचंते विषयाः सुलभा अपि ।। ३७ ॥ यथा-यथा न रोचंते विषयाः सुलभा अपि ।
तथा-तथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।। ३८ ।। ध्याता जितना-जितना ध्यान में एकाग्रता को प्राप्त होता है उतनाउतना उसे तत्त्व का उत्तम संवेदन प्राप्त होता है और जैसे-जैसे तत्त्वों में प्रीति प्राप्त होती है वैसे-वैसे पंचेन्द्रिय विषय सुलभ होने पर भी रुचिकर नहीं लगते हैं । जैसे-जैसे विषयों की सुलभता मे भी रुचि का अभाव होता जाता है वैसे-वैसे स्वानुभव-स्वसंवेदन की प्राप्ति भव्यात्मा को होने लगती है। अतः ध्याता र्याद आत्मस्थिति को प्राप्त करना चाहता है तो उसे ध्यान की एकाग्रता को प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करना चाहिये ।
धर्म्यशुक्लध्यानों में भेदाभेद एतद् द्वयोरपि ध्येयं ध्यानयोधर्म्यशुक्लयोः । विशुद्धिस्वामिभेदात्तु तयोर्भेदोऽवधार्यताम् ॥१८०॥
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