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________________ १२० तत्त्वानुशासन ____ अर्थ-धर्म्य और शुक्ल दोनों ही ध्यानों में यह आत्मतत्त्व ही ध्यान करने योग्य होता है। विशुद्धि और स्वामी के भेद से उन दोनों में भेद समझना चाहिये ॥ १८० ।। स्वात्मदर्शन अति दुःसाध्य इदं हि दुःशकं ध्यातु सूक्ष्मज्ञानावलम्बनात् । बोध्यमानमपि प्राज्ञैर्न च द्रागवलक्ष्यते ॥१८१॥ अर्थ- सूक्ष्म ज्ञान का आश्रय लेने के कारण इस आत्मा का ध्यान करना अत्यन्त दुःसाध्य है। बुद्धिमान् लोगों के द्वारा समझाये जाने पर भी यह शीघ्र दिखलाई नहीं पड़ता है ।। १८१ ।। तस्माल्लक्ष्यं च शक्यं च दृष्टादृष्टफलं च यत् ।। स्थूलं वितर्कमालम्ब्य तदभ्यस्यन्तु धीधनाः । १८२॥ अर्थ-इसलिये जो जाना जा सकता है, किया जा सकता है और जिसका फल प्रत्यक्ष एवं अनुमान आदि से जाना जा सकता है ऐसे स्थूल विचारों का आलम्बन ले बुद्धिमान पुरुषों को उसका अभ्यास करना चाहिये ।। १८२ ।। आकारं मरूतापूर्य कुम्भित्वा रेफवह्निना । दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म भस्म विरेच्य च ॥१८३॥ हमंत्रो नभसि ध्येयः क्षरन्नमृतमात्मनि । तेनाऽन्यत्तद्विनिर्माय पीयुषमयमुज्ज्वलम् ॥१८४॥ तत्तादौ पिंडसिद्धयर्थं निर्मलीकरणाय च । मारूती तैजसीमाथां(प्यां) विदच्याद्धारणां क्रमात् ॥१८५।। ततः पंचनमस्कारैः पंपिंडाक्षरान्वितैः । पंचस्थानेषु विन्यस्तैविधाय सकलां क्रियाम् ॥१८६॥ पश्चादात्मामहंतं ध्यायेन्निर्दिष्टलक्षणम् । सिद्धं वा ध्वस्तकर्माणमसूतं ज्ञानभास्वरम् ॥१८७॥ अर्थ- “अहं' मंत्र का ध्यान करना चाहिये। उसमें से पूरक वायु के द्वारा अकार को पूरित व कुम्भित करके तथा रेफ में से निकलती हुई अग्नि के द्वारा अपने शरीर के साथ ही साथ कर्मों को जलावे । शरीर व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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