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________________ ११८ तत्त्वानुशासन नैरात्म्य दर्शन अन्यात्माभावो नैरात्म्यं स्वात्मसत्तात्मकश्च सः । स्वात्मदर्शनमेवातः सम्यग्नैरात्म्यदर्शनम् ॥१७६॥ अर्थ-अन्य आत्माओं का अभाव ही नैरात्म्य कहा जाता है और वह स्वात्मसत्तात्मक अर्थात् अपनी आत्मा की सत्ता रूप है । इमलिए अपनी आत्मा का दर्शन ही सही नैरात्म्यदर्शन है ।। १७६ ।। विशेष-एक आत्मा में अन्य आत्माओं के अभाव को नैरात्म्य कहते हैं जो कि अपनी आत्मसत्त रूा है इसलिये स्वयं की आत्मा के दर्शन का ही नाम समीचीन नैरात्म्बदर्शन है । द्वैताद्वैत दृष्टि आत्मानमन्यसंपृक्तं पश्यन् द्वैतं प्रपश्यति । पश्यन् विभक्तमन्येभ्यः पश्यत्यात्मानमद्वयम् ॥१७७॥ अर्थ-प्राणी आत्मा को अन्य पदार्थ से सम्बन्धित देखता हुआ द्वैत को देखता है परन्तु आत्मा को अन्य पदार्थों के सम्बन्ध से भिन्न (रहित) देखता हुआ आत्मा को अद्वय देखता है ॥ १७७ ।। विशेष-तात्पर्य आत्मा को अन्य से सम्बद्ध देखने वाला द्वैत को देखता है और आत्मा को अन्यों से विभक्त देखने वाला अद्वैत को देखता है । इस तरह एक आत्मा का अन्य आत्मा से विभिन्न दिखाई देना इसका नाम नैरात्म्यदर्शन है। अन्य से असम्बद्ध आत्मा को दिखाई देने का नाम अद्वैतदर्शन है। दोनों में यही विशेषता पाई जाती है। आत्मदर्शन का फल पश्यन्नात्मानमैकानयात्क्षपयत्यजितान्मलान् । निरस्ताहंममीभावः संवृक्षोत्यप्यनागतान् ॥१७८॥ अर्थ-अहंकार एवं ममकार भावों को नष्ट कर चुकने वाला यह आत्मा एकाग्रता से आत्मा को देखता हुआ संग्रहीत पापों को नष्ट कर देता है तथा आनेवाले कर्मों को भी रोक देता है ।। १७८ ।।। विशेष-योगी जब अहंकार एवं ममकार भावों को नष्ट कर देता है तो बुद्धिपूर्वक उसके मन-वचन-काय अवरुद्ध करने में समर्थ हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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