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________________ तत्त्वानुशासन ११७ अर्थ-तब परम एकाग्रता धारण करने के कारण अपनी आत्मा में अपने आपको देखने वाले योगी को बाह्य पदार्थों के होने पर भी अन्य कुछ प्रतीत नहीं होता ।। १७२ ।। शून्याशून्य स्वभाव आत्मा की आत्मा के द्वारा प्राप्ति अतएवान्यशून्योऽपि नात्मा शून्यः स्वरूपतः । शून्याशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते ॥१७३॥ अर्थ-इसलिये अन्य पदार्थों से शून्य होता हुआ भी यह आत्मा स्वरूप से शून्य नहीं है। शून्य एवं अशून्य स्वभाव कथंचित् शून्य व कथंचित् अशून्य को लिये हुए यह आत्मा आत्मा के द्वारा ही प्राप्त होता है ।।१७३॥ स्वात्मा ही नैरात्म्याद्वैत दर्शन ततश्च यज्जगुर्मुक्त्यै नैरात्म्याद्वैतदर्शनम् । तदेतदेव यत्सम्यगन्यापोहात्मदर्शनम् ॥१७४।। अर्थ-इसलिये जो मुक्ति के लिये नैरात्म्याद्वैत दर्शन माना जाता है वह यही तो है । जो भले प्रकार से, अन्य पदार्थों से रहित आत्मा का दर्शन होना है अर्थात् अन्य पदार्थों से रहित केवल स्वात्मा के दर्शन करने को ही तो नैरात्म्याद्वैत दर्शन कहते हैं ॥ १७४ ।। विशेष-भाव यह है कि प्रत्येक द्रव्य अन्य द्रव्यों का अभाव रूप होता है। आत्मा भी आत्मा से भिन्न पदार्थों का अभावरूप है । इस कारण अपना आत्मा अन्य आत्मा के अभाव रूप होने से नैरात्म्याद्वैत दर्शन कहलाता है। स्वात्मा ही नैर्जगत्य परस्परपरावृत्ताः सर्वे भावाः कथञ्चन । नैरात्म्यं जगतो यद्वन्नैर्जगत्यं तथात्मनः ॥१७५॥ अर्थ-किसी प्रकार से सभी भाव या पदार्थ परस्पर परावृत्तरूप हैं, अतः जैसे जगत् का नैरात्म्य अर्थात् आत्मा से भिन्नत्व है वैसे ही आत्मा का नैर्जगत्य अर्थात् जगत् से भिन्नत्व है ।। १७५ ॥ विशेष-संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने से भिन्न अन्य सभी पदार्थों के अभाव रूप है। अतएव जिस प्रकार संसार आत्मा से भिन्न है, उसी प्रकार आत्मा भी संसार से भिन्न है। यही उक्त कथन का अभिप्राय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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