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तत्त्वानुशासन
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ध्यान में भाने योग्य कुछ भावनाएँ
उद्धद्धमज्झलोए केइ मज्झं ण अहयमेगागी। इह भावणाए जोई पावंति हु सासयं ठाणं ॥८१॥
-मोक्षप्राभृत अर्थ-ऊर्ध्व, मध्य और अधो इन तीनों लोकों में, मेरा कोई भी नहीं, मैं एकाकी आत्मा हूँ। ऐसी भावना करने से योगी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है। ___मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुखमय और पररूप संसार में निवास करता हूँ और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक में ध्यान करना चाहिये। ( रत्नकरण्डश्रावकाचार )
एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः ।।
बाह्याः संयोगजा भावा भत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥ २७ ॥ इ० उ० अर्थ-मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानो हूँ, ज्ञानी योगीन्द्रों के ज्ञान का विषय हूँ। इनके सिवाय जितने भी स्त्री-धन आदि संयोगी भाव हैं वे सब मुझसे सर्वथा भिन्न हैं । ( सामायिक प० अ० २६ ) ।
मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शन ज्ञानात्मक और अरूपी हूँ, मेरा परमाण मात्र भी अन्य कुछ नहीं है। मैं न पर पदार्थों का हूँ, और न परपदार्थ मेरे हैं, मैं तो ज्ञानरूप अकेला ही हूँ। न मैं देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हैं और न उनका कारण ही हूँ। न मैं पर पदार्थों का हूँ और न पर पदार्थ मेरे हैं । यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है। जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभाव से युक्त सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव है वही मैं हूँ। इस प्रकार ज्ञानी जीव को विचार करना चाहिये।
मैंने अपने ही विभ्रम से उत्पन्न हुए रागादिक अतुल बन्धनों से बँधे हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसार रूप दुर्गम मार्ग में बिडम्बना रूप होकर विपरीताचरण किया । यद्यपि मेरा आत्मा परमात्मा है, परं ज्योति है, जगत्श्रेष्ठ है, महान् है, तो भी वर्तमान देखनेमात्र को रमणीक और अन्त में नीरस ऐसे इन्द्रियों के विषयों से ठगाया गया है। अनन्तचतुष्टयादि गुण समूह मेरे तो शक्ति की अपेक्षा विद्यमान हैं और अर्हत् सिद्धों में वे ही व्यक्त हैं। इतना ही हम दोनों में भेद है। न तो मैं नारको हूँ, न तिर्यंच हूँ और न मनुष्य या देव ही हूँ किन्तु सिद्ध स्वरूप हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो कर्म विपाक से उत्पन्न हुई हैं। मैं अनन्तवीर्य-अनन्त विज्ञान,
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