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________________ १०२ तत्त्वानुशासन अनन्त दर्शन व अनन्त आनन्द स्वरूप हूँ। इस कारण क्या विषवृक्ष के समान इन कर्म शत्रुओं को जड़मूल से न उखाड़। बन्ध का विनाश करने के लिए विशेष भावना कहते हैं-मैं तो सहज शद्ध ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ, निर्विकल्प तथा उदासोन हूँ। निरंजन निज शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुष्ठानरूप निश्च य रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वोतराग सहजानन्दरूप सुखानुभूति हो है लक्षण जिसका, ऐसे स्वसंवेदनज्ञान के गम्य हूँ राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया व लोभ से तथा पंचेन्द्रियों के विषयों से, मनोवचनकाय के व्यापार से, भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित हूँ। ख्याति पूजा लाभ से देखे सुने व अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षा रूप निदान, माया, मिथ्या इन तीन शल्यों को आदि लेकर सर्व विभाव परिणामों से रहित हूँ । तिहूँ लोक, तिहूँ काल में मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदना के द्वारा शुद्ध निश्चय मैं शून्य हूँ। इसी प्रकार सब जीवों को भावना करनी चाहिये। ध्यान में ध्येय को स्फुटता ध्याने हि बिभ्रते स्थैर्य ध्येयरूपं परिस्फुटम् । आलेखितमिवाभाति ध्येयस्यासन्निधावपि ॥१३३॥ अर्थ-ध्यान करने योग्य पदार्थ के समीप न रहने पर भी ध्यान करने योग्य पदार्थ स्पष्ट रूप से ध्यान में स्थिरता को प्राप्त हो जाता है और चित्रलिखित के समान प्रतीत होता है ।।१३३॥ पिण्डस्थ ध्येय का स्वरूप धातुपिण्डे स्थितश्चैवं ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः । ध्येयपिण्डस्थमित्याहुरतएव च केवलम् ॥१३४॥ अर्थ-इस प्रकार चंकि धातु पिण्ड में स्थित ध्यान करने योग्य पदार्थ का ध्यान किया जाता है, इसलिये इसे केवल ध्येय पिण्डस्थ कहते हैं ॥१३४।। ध्याता ही परमात्मा यदा ध्यानबलाद् ध्याता शून्यीकृत्य स्वविग्रहम् । ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात् तादृक् संपद्यते स्वयम् ॥१३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001848
Book TitleTattvanushasan
Original Sutra AuthorNagsen
AuthorBharatsagar Maharaj
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1993
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size12 MB
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